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रत्नकरण्डक श्रावकाचार (उपासकाध्ययन) की प्रभाचन्द्रकृत टीका के उद्धरण
कमलेशकुमार जैन, दिल्ली
प्रस्तुत आलेख समन्तभद्र स्वामी विरचित रलकरण्डक उपासकाध्ययन श्रावकाचार की प्रभाचंद्रकृत टीका पर आधारित है। यह ग्रन्थ माणिकचन्द्र दि.
जैन ग्रन्थमाला,मुम्बई द्वारा वि सं. 1982 (ई. सन् 1926) में सटीक प्रकाशित हुआ था। इसमें इतिहासविद्, प्राक्तन-विमर्श-विचक्षण पंडित जुगल किशोर मुख्तारलिखित 84 पृष्ठ की विस्तृत एवं महत्वपूर्ण प्रस्तावना है। साथ ही उन्हीं के द्वारा प्राक्कथन के रूप में लिखा गया 252 पृष्ठ का रत्नकरण्डक एवं उसके कर्ता समन्तभद्र स्वामी विषयक इतिहास है।
उक्त प्रस्तावनाकी प्रशंसा एवं महत्ता प्रतिपादित करते हुए सामान्यतया भारतीय संस्कृति और विशेषतः जैन संस्कृति एवं साहित्य के तटस्थ विवेचक स्वनाम धन्य पं नाथूराम प्रेमी ने लिखा था - "सुहृदवर बाबू जुगलकिशोर जी ने प्रस्तावना और इतिहास के लिखने में जो परिश्रम किया है, उसकी प्रशंसा नहीं की जा सकती। इतिहासज्ञ बहुश्रुत विद्वान् ही इनके मूल्य को समझेंगे। आधुनिक काल में जैन साहित्य के सम्बन्ध में जितने आलोचना और अन्वेषकात्मक लेख लिखे गये हैं, मेरी समझ में उन सब में इन दोनों निबन्धों को (प्रस्तावना और इतिहास को) अग्र-स्थान मिलना चाहिए। ग्रन्थमाला के संचालक इन निबन्धों के लिए बाबू साहब के बहुत ही अधिक कृतज्ञ हैं। साथ ही उन्हें इन बहुमूल्य निबन्धों को इस ग्रन्थ के साथ प्रकाशित कर सकने का अभिमान है।"
इस सटीक रत्नकरण्डक ग्रन्थ का सम्पादक कौन है? इसका ग्रन्थ में कहीं स्पष्ट उल्लेख नहीं है, परन्तु ग्रन्थमाला के मंत्री के रूपमें पं. नाथूराम प्रेमी द्वारा लिखे गये निवेदन ' से यह ध्वनित होता है कि इस मूल ग्रन्थ का सम्पादन संभवतः उन्होंने स्वयं ही किया था।