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प जुगलकिसोर मुख्तार "युगवीर" व्यक्तित्व एवं कृतित्व मानवीय-मूल्यों के सम्बर्द्धन में एक भास्वर-भाष्य कहा। अपनी 119 पृष्ठीय शोधपूर्ण प्रस्तावना में कुछ विशिष्ट बिन्दुओं पर पण्डित मुख्तार साहब ने प्रकाश डाला है। यथा
(1) उन्होंने यह सिद्ध किया कि इस ग्रन्थ को समन्तभद्र नाम के किसी अन्य विद्वान ने बनाया है, यह संदेह, निरा-भ्रम है और पूर्णत: निरर्थक है। उन्होंने तर्क द्वारा प्रमाणिल किया कि छह समन्तभद्र हुए हैं
लघु समन्तभद्र, चिक्क समन्तभद्र, गेरूसोधे समन्तभद्र, अभिनव समन्तभद्र एवं गृहस्थ समन्तभद्र परन्तु किसी के साथ 'स्वामी' शब्द नहीं है जबकि रत्नकरण्ड श्रावकाचार के प्रणेता आचार्य समन्तभद्र के साथ 'स्वामी' शब्द लगा है। जो "देवागम स्तोत्र" आदि के भी प्रणेता है।
(2) प्रो. (डॉ.) हीरालाल जी ने रत्नकरण्ड' ग्रन्थ को स्वामी समन्तभद्र की रचना नहीं माना और 'क्षुत्पिपासा.....' नामक पध में दोष का स्वरूप बताकर एक नये संदेह को जन्म दिया। भाष्यकार ने इसका निर्मूलन अपनी प्रस्तावना में किया है। उन्होंने कहा कि जिस प्रकार मिट्टी और पानी के बिना बीज का अंकुरोत्पादन सम्भव नहीं होता, उसी प्रकार सर्वज्ञकेवली के मोहनीय कर्म के नष्ट हो जाने से (चारों घातिया कर्मों का अभाव हो जाने से) वेदनीय कर्म दुःखोत्पादनादि में असमर्थ रहता है, अतः उनमें क्षुत्पिपासा आदि दोष नहीं पाये जाते। यदि क्षुधादि वेदनाओं के उदयवश केवली में भोजनादि की इच्छा उत्पन्न होती तो उसके मोहकर्म का अभाव नहीं कहा जा सकता क्योंकि इच्छा ही मोह का परिणाम है। क्षुधादि की पीड़ायथाख्यातचारित्र की विरोधी है। क्षुधादि छठे गुणस्थान में होते हैं, जबकि केवली का तेरहवां गुणस्थान होता है। अत: केवली के भोजनादि का होना उनके पद के विरुद्ध पड़ता है।
उन्होंने अपने पाण्डत्य के द्वारा पांच तर्क प्रस्तुत करते हुए केवली के क्षुत्पिपासा दोष का निर्मूलन कर श्वेताम्बर परम्परा का अनेकान्त से खण्डन किया। ___(3) अपनी शोधपूर्ण प्रस्तावना में मुख्तार सा.ने पण्डित पन्नालाल जी बाकलीवाल (1898) के संदेह का भी समाधान किया। बाकलीवाल सा. ने 21 पद्यों को क्षेपक' होने का संदेह किया। क्षेपक' यानी ऐसे पद्य जो अन्य