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"यगवीर भारती" के सम्बोधन रखण्ड का समीक्षात्मक अध्ययन
श्रीमती कामिनी "चेतन्य", जयपुर।
हर क्षण जीवन का मूल्यवान है, सफल बना लो। जो गया सो गया अब भी, ध्यान लगा लो॥ इस धरा पर मिल जायेगी, मुक्ति सभी को।
आत्मा में केवल ज्ञान का, दीप जला लो॥
भारत शताब्दियों से संस्कृति प्रधान देश रहा है। साहित्य, संगीत व कला ही देश की संस्कृति की आधारशिला होती है। साहित्य हमारे कौतूहल और जिज्ञासा वृत्ति को शान्त करता है, ज्ञान पिपासा को तृप्त करता है।
आज के इस भौतिक वातावरण में जहाँ चारों ओर पाश्चात्य-परिवेश पूर्णरूप से व्याप्त है, मानव भौतिकता की चकाचौंध में आध्यात्मिकता को भुलाये जा रहा है, भोग-लिप्सा व विलासिता उसके जीवन का अंग बन चुके हैं। जैन वाङ्मय इतिहास एवं पुरातत्व की महत्वपूर्ण सामग्री गुफाओं, मन्दिरो व अलमारियों में बन्द घुटन की श्वास ले रहे थे, ऐसे अज्ञान रुपी अन्धकार को विलुप्त कर ज्ञान का प्रकाश प्रज्जवलित करने वाले सरसावा की अत्यन्त उर्वर भूमि को मार्ग शीर्ष एकादशी वि. सं. 1934 को एक महान व्यक्तित्व को जन्म देन का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
जिस व्यक्तित्व के समक्ष सरस्वती अपनी ज्ञान गठरी खोल उसे युगयुगान्तर तक अमर बना देगी। माता भुई देवी अपने इस नौनिहाल को प्राप्त कर आनन्द-विभोर हो उठी। माता-पिता ने नामकरण संस्कार सम्पन्न किया, और नाम रक्खा "जुगलकिशोर" कहा भी है -
"पूत के पैर पालने में ही मालूम पड़ जाते हैं।"