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पं जुगलकिशोर मुख्तार "युगवीर" व्यक्तित्व एवं कृतित्व
शीर्ष शुक्ला एकादशी विक्रम सम्वत् 1934 को माता भुईदेवी इस नौनिहाल को प्राप्त कर धन्य हुई थी।
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शैशव से ही इस बालक में कोई ऐसी चुम्बकीय शक्ति थी कि मातापिता, पास-1 -पड़ोस तथा सभी समर्पित व्यक्तियों को यह अनुरंजित किया करता था। माता-पिता ने शिशु का नामकरण-संस्कार सम्पन्न किया और नाम रखा - जुगलकिशोर । इस नाम की अपनी विशेषता है। जीवन में साहित्य और इतिहास इन दोनों धाराओं का एक साथ सम्मिलन होने से यह युगल - जुगल तो है ही, पर नित्य नवीन क्रांतिकारी विचारों का प्रसारक होने के कारण किशोर भी है। समाज संरचना के हेतु सुधारवादी वैचारिक क्रांति का प्रवर्तन इन्होंने किया ही है तो साथ ही भूतकालीन गर्त में निहित लेखकों और ग्रंथों को भी प्रकाश में लाये हैं, अतएव यह जुगल हमेशा किशोर ही बना रहा । इसीलिए वृद्ध होने पर भी उन्हें किशोर कहा जाता रहा। श्री जुगलकिशोर जी की प्रारम्भिक शिक्षा पाँच वर्ष की अवस्था में उर्दू-फारसी से प्रारंभ हुई। मी साहब की दृष्टि में बालक जुगलकिशोर दूसरा विद्यासागर थी। उसमें विलक्षण प्रतिभा थी। दूसरा गुण जो इस बालकं में था वह थी इनकी तर्कणा शक्ति । यद्यपि इनका विवाह बाल्यावस्था में ही हो गया था किन्तु इसके कारण इनकी ज्ञानपिपासा कम नहीं हुई अपितु अधिक बलवती हो उठी जैसे हीरे पर शान रख दी गई हो। उन्होंने हिन्दी और संस्कृत का अध्ययन पाठशाला में किया और जैन शास्त्रों के स्वाध्याय में प्रवृत्त हुये। अंग्रेजी का अध्ययन करके उन्होंने इन्फ्रेंस की परीक्षा उत्तीर्ण की। उन्होंने अपने अध्ययन काल से ही लिखना प्रारंभ कर दिया था। उनकी जो प्रथम रचना इस समय उपलब्ध है वह 8 मई 1896 ई. के " जैन गजट" में प्रकाशित हुई है। इस रचना से यह स्पष्ट है कि वे अनुभव करते थे कि कि भारत के दुर्भाग्य का मूल कारण अविद्या असंगठन और अपने मान्य आचार्यों के विचारों के प्रति उपेक्षा का भाव है। जब तक इन मूल कारणों का विनाश नहीं होगा, तब तक देश न तो स्वतंत्रता प्राप्त कर सकेगा और न ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में प्रगति ही कर सकेगा। उन्होंने प्रेरित किया था कि - युवकों को संग्रठित होकर देशोत्थान के लिये संकल्प लेना चाहिये ।