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पं जुगलकितार मुख्तार "युगवीर" व्यक्तित्व एवं कृतित्व परन्तु अन्ध श्रद्धा को कोई स्थान नहीं है। समय-समय पर शिथिलाचार के पोषक लोगों ने विभिन्न ग्रंथों के उद्धरणों को इधर-उधर से जुटाकर उनको प्रतिष्ठित आचार्यों के नाम के साथ जोड़कर समाज को गुमराह किया है। श्रद्धालु समाज ऐसे ग्रंथों को भी जिनवाणी के समान बहुमान देती रही परन्तु पं. जुगलकिशोर मुख्तार ने इनकी प्रामाणिकता की शास्त्रीय आलोक में कसौटी पर कसकर परीक्षा की तथा मनगढन्त तथ्यों के आधार पर निबद्ध ग्रंथों को शास्त्र की कोटि में स्थापित करने का प्रबल विरोध किया क्योंकि कुशास्त्रों को सम्मान प्रदान करना विष-वृक्ष को सींचने के समान माना गया है।
ग्रंथ परीक्षा चतुर्थ भाग में सूर्य प्रकाश परीक्षा के बारे में अनेक तथ्यों को उद्धृत करते हुए उन्होंने लिखा है कि सूर्य प्रकाश ग्रंथ के अनुवादकसम्पादक ब्र. ज्ञानानन्द जी महाराज (वर्तमान क्षुल्लक ज्ञानसागर महाराज) ने निर्माण काल विषयक श्लोक का अर्थ ही नहीं दिया, जबकि उसी प्रकार के अनेक संख्यावाचक श्लोकों का ग्रंथ में अर्थ दिया है, जिसका अर्थ नहीं दिया, वह श्लोक निम्न है।
अंकाभ्रनंदेंदु प्रमे हि चाब्दे मित्रादि-शैलेन्दु-सुशाकयुक्ते। मासे नामाख्ये शुभनदघस्त्रे विरोचनस्यैव सुवारके हि ॥
इस श्लोक से स्पष्ट है कि यह ग्रंथ वि.सं. 1909 तथा शक सं. 1774 के श्रावण मास में शुक्ल नवमी के दिन रविवार को बनकर समाप्त हुआ है। श्लोक का अर्थ न देने में अनुवाद का यह खाश आशय रहा है कि सर्वसाधारण में यह बात प्रकट न हो जाये कि ग्रंथ इतना अधिक आधुनिक है अर्थात् इस बीसवीं शताब्दी का ही बना हुआ है।
प्रतिपक्षियों के विरुद्ध कर्कश शब्दावली में उन पर अनेक प्रहार किये गये हैं जो शास्त्रीय शब्दावली के अनुरूप नहीं है। जैन परम्परा में भाषा संयम पर विशेष बल दिया गया है। प्रतीपक्षी को बहुमानवृत्ति के साथ सयुक्तिक ढंग से शास्त्रों में समझाया गया है। इस ग्रंथ में ढूंढियों को मूर्ख, मूढ़ मानस, खलात्मा, श्वपचवत निशाचरसम जैसे शब्दों का प्रयोग किया गया है जो शास्त्रीय गरिमा के अनुरूप नहीं है।