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पं जुगलकिशोर मुखार "युगवीर" व्यक्तित्व एवं कृतित्व है। इसके प्रथम भाग में - उमास्वामी-श्रावकाचार, कुन्द कुन्द्र-श्रावकाचार
और जिनसेन त्रिवर्णाचार- इन तीन ग्रन्थों की परीक्षा की गई है और इन तीनों ग्रन्थों को जाली सिद्ध किया गया है। "ग्रन्थ-परीक्षा द्वितीय - भाग" (अर्थात् भद्रबाहु संहिता नामक ग्रन्थ की समालोचना):
इस ग्रन्थ का प्रकाशन द्वि. भाद्र 1974 वि. तदनुसार सितम्बर 1917 ई. में जैन ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, गिरगाँव, बम्बई से हुआ 127 पृष्ठों में प्रकाशित इस प्रथम संस्करण का मूल्य मात्र चार आने अर्थात् वर्तमान के पच्चीस पैसे रखा गया था। इसके मुद्रक है चिंतामण सखाराम देवड़े जो मुम्बई वैभव प्रेस, सट्टेटस ऑफ इंडिया सोसायटीज होम संढर्ट रोड, गिरगांव, बम्बई के स्वत्वाधिकारी थे। ग्रन्थ के प्रकाशकीय निवेदन में पं. नाथूराम प्रेमी ने उल्लेख किया है कि - "जैन-हितेषी में लगभग चार वर्ष से ग्रन्थ-परीक्षा शीर्षक लेखमाला निकल रही है, उन्हीं लेखों को "ग्रन्थ-परीक्षा" शीर्षक से पुस्तिका का प्रकाशित किया गया है। माननीय मुख्तार साहब के इन लेखों ने जैन समाज को एक नवीन युग का संदेश सुनाया है, और अंधश्रद्धा के अंधेरे में निन्द्रित पड़े हुये लोगों कों चकचौंधा देने वाले प्रकाश से जागरुक कर दिया है ....... ।"
"जैनधर्म के उपासक इस बात को भूल रहे थे कि जहाँ हमारे धर्म या सम्प्रदाय में एक ओर उच्च श्रेणी के निःस्वार्थ और प्रतिभाशाली ग्रन्थ-कर्ता उत्पन्न हुए हैं वहीं दूसरी और नीचे दर्जे के स्वार्थी और तस्कर लेखक भी हुए हैं अथवा हो सकते हैं, जो अपने खोटे सिक्कों को महापुरुषों के नाम की मुद्रा से अंकित करके खरे दामों में चलाया करते हैं। इस भूल के कारण ही आज हमारे यहां भगवान् कुन्दकुन्द और सोमसेन, समन्तभद्र और जिनसेन (भट्टारक), तथा पूज्यपाद और श्रुतसागर एक ही आसन पर बिठाकर पूजे जाते हैं।
लोगों की सद्विवेक बुद्धि का लोप यहाँ तक हो गया है कि वे संस्कृत या प्राकृत में लिखे हुए चाहे जैसे वचनों को आप्त भगवान के वचनों से जरा भी कम नहीं समझते। ग्रन्थ-परीक्षा के लेखों से हमें आशा है कि