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५ जुगलकिशोर मुख्तार "पुगवीर "व्यक्तित्व एवं कृतित्व
उठाकर रख दिया है। छन्दों को कहीं ज्यों का त्यों, कहीं पूर्वार्द्ध को उत्तरार्द्ध और कहीं उत्त्रार्द्ध को पूर्वार्द्ध के रूप में तोड़ा-मरोड़ा है। ऐसा करते समय क्रियापदों में परिवर्तन नहीं कर सके है। अतः असम्बद्धता आ गयी है (पृ. 26-27) भूतकाल और भविष्यकाल की क्रियाओं का बड़ा विलक्षण योग है। देखिये (अध्याय 34, ज्योतिषखंड में पंचमकाल का वर्णन, पद्य 47-57)
इस प्रकरण की समीक्षा और तुलनात्मक अध्ययन से यह ध्वनित होता है कि इस पंचमकाल वर्णन में असम्बद्धता है। यह सम्पूर्ण प्रकरण किसी पुराणादि ग्रंथ से उठाकर यहाँ रखा गया है जो विक्रम संवत् 530 के पीछे की रचना है।
'भद्रबाहु संहिता' में वर्ण्य विषय के साथ भद्रबाहु का सम्बंध स्थापित करते हुए क्रियापदों में यथेष्ट परिवर्तन नहीं किया गया है। इससे असम्बद्धता का दोष आ गया है। इस ग्रन्थ के द्वितीय खण्ड में निमित्ताध्याय के वर्णन में प्रतिज्ञावाक्य - पूर्वाचार्ये यथा प्रोक्तं दुर्गाोलातादिभिर्य था। गृहीत्वा तदभिप्रायं तथारिष्टं वदाम्यहम् ॥ 30-10 इस प्रतिज्ञावाक्य से स्पष्ट है कि उन्होंने दुर्गादिक और ऐलादिक आचार्यों को पूर्वाचार्य माना है। मुख्तार जी ने इनके ग्रंथों की खोज की। तब स्पष्ट हुआ कि - भद्रबाहु श्रुतकेवली से पहले इस नाम के उल्लेख योग्य कोई आचार्य नहीं हुए हैं। ऐलाचार्य नाम के तीन आचार्य हुए हैं। प्रथम एलाचार्य कुन्दकुन्द का दूसरा नाम है (दूसरे) एलाचार्य चित्रकूटपुर निवासी कहे आते हैं जिनसे आचार्य वीरसेन ने सिद्धान्तग्रंथ पढ़ा था। (तीसरे) ऐलाचार्य भट्टारक हैं। उनके द्वारा रचित ज्वालामालिनी-कल्प ग्रन्थ का उल्लेख मिलता है।
___ यहाँ यह तथ्य विचारणीय है कि ये तीनों ऐलाचार्य भद्रबाहु 'श्रुतकेवली से अनेक शताब्दियों बाद हुए हैं।