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युगवीर भारती का संस्कृत वाग्विलास खण्डसमीक्षात्मक अध्ययन
डॉ. विमल कुमार जैन,
अन्धकार है वहाँ जहाँ आदित्य नहीं है। मुर्दा है वह देश जहाँ साहित्य नहीं है ॥
जयपुर
परतंत्र भारत के उन्मुक्त मनीषी पंडित जुगलकिशोर जी 'मुख्तार' ने अपने साहित्य का सृजन ऐसे समय से प्रारम्भ किया, जब वह संघर्षों के जाल में उलझे हुए थे । उनका जीवन विषमताओं से भरा रहा है।
झंझावातों में समतामूलक जीवन के साक्षी, 'सादा जीवन उच्च विचार' की प्रतिमूर्ति, पं. जुगलकिशोर जी ने अपना सर्वस्व माँ जिनवाणी की सेवा में समर्पित कर दिया और जीवन के अन्तिम चरण तक अहर्निश सरस्वती की सेवा में रत रहे । साहित्य का कोई भी क्षेत्र उनसे अछूता नहीं रहा। वह चाहे गद्य का क्षेत्र हो या पद्य का, निबन्ध का हो या संपादन का, पत्रकारिता का हो या भाष्यकार का, समीक्षा का हो या आलोचना का; प्रत्येक क्षेत्र में उन्होंने महारथ हासिल की थी। मौलिक लेखन के रूप में हिन्दी और संस्कृत के क्षेत्र में उनका समान अधिकार था। यही कारण है कि उन्होंने दोनों ही भाषाओं में साहित्य सृजन किया है। यद्यपि उनकी शिक्षा उर्दू-फारसी मे हुई थी।'
प्रतिभा सम्पन्न पंडित मुख्तार जी ने अपनी पैनी लेखनी का प्रयोग जैन साहित्य के निर्माण में ही किया। बहुमुखी प्रतिभा के धनी, ज्ञान के सागर पंडित जी का लेखन कार्य विद्यालयी अवस्था से ही प्रारम्भ हो गया था। उनकी एक रचना 8 मई, 1896 को "जैन गजट" में प्रकाशित हुई थी । उन्होंने अपनी लेखनी द्वारा समाज में व्याप्त अन्धविश्वासों पर करारी चोट की तथा तथाकथित भट्टारकों की परीक्षा 'ग्रन्थ परीक्षा' नामक ग्रन्थ ने तो समाज में खलबली मचा दी थी पर उनकी मान्यताओं का खण्डन करने का साहस