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ग्रन्थ परीक्षा प्रथम भाग की समीक्षा
डॉ. नेमिचन्द्र जैन, खुरई
स्व. पं. जुगलकिशोर जी मुख्तार बीसवीं शताब्दी के अद्वितीय प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति थे । वे कर्मठ साहित्य साधक, स्वाध्याय तप में सदा लीन रहने वाले, विलक्षण व्यक्तित्व के धनी थे। गौरवर्ण विशालभाल, लम्बकर्ण, सुगठित शरीर, आकर्षक अद्भुत स्मरणशक्ति सम्पन्न, सात्विक वृत्ति, साधारण वेशभूषा एवं गम्भीरचिन्तक व्यक्ति का नाम था जुगलकिशोर । वे सामाजिक और साहित्यिक क्रांति के सृष्टा थे। उनमें सर्वश्रेष्ठ तर्कणाशक्ति थी। जब तक कोई बात तर्ककी कसौटी पर कस नहीं लेते थे तब तक स्वीकार नहीं करते थे । स्वाध्यायी विद्वान् होने के कारण उन्होंने सर्वप्रथम पुराणों का स्वाध्याय किया। उनके मन में स्वाध्याय के समय अनेक प्रश्न उत्पन्न होते थे जिनका समाधान वे विद्वानों के माध्यम से कर लिया करते थे पर पुराणों के कर्ता, तथा अन्य धार्मिक ग्रन्थों के लेखकों के सम्बन्ध में ऐतिहासिकदृष्टि से सामग्री सुलभ न होने के कारण जिज्ञासा अधूरी रहती थी । अतः उन्होंने स्व्यं विभिन्न ग्रन्थों की प्रशस्तियों को पढ़कर लेखकों का ऐतिहासिक दृष्टि से चिन्तन किया । व्यक्तित्व के गुणात्मक विकास के कारण उन्हें भविष्यदृष्टा कहा जाना अतिशयोक्ति नहीं होगी। साहित्य, कला, एवं पुरातत्व के अध्ययनअन्वेषण में जीवनव्यतीत करने वाले पंडित जुगलकिशोर जी ने सर्वप्रथम भट्टारकों में फैले हुए शिथिलाचार की ओर समाज का ध्यान आकर्षित करने के लिये ग्रन्थों का परीक्षण प्रारम्भ कर ग्रन्थपरीक्षा के नाम से ग्रन्थों का प्रकाशन प्रारम्भ करके समाज का महान उपकार किया।
पं. नाथूलाल जी प्रेमी ने लिखा है -
"मैं नहीं जानता कि पिछले कई सौ वर्षों में किसी भी जैन विद्वान् ने कोई इस प्रकार का समालोचनात्मक ग्रन्थ इतने परिश्रम से लिखा
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