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Pandit Jugal Kishor Mukhtar "Yugvoer" Personality and Achievements
हि मानसम् के हो समान शीर्षक में रचना की आत्मा प्रतिबिम्बित होती है। शीर्षक वह धुरी है, जिसके चारों ओर रचना की समस्त अभिव्यक्ति प्रस्फुटित होती है। शीर्षक छोटा, आकर्षक एवं जिज्ञासामूलक होना चाहिए, किन्तु ऐसा आदर्श शीर्षक देना सरल कार्य नहीं है। "अंग्रेजी के सुप्रसिद्ध नाटककार शेक्सपीयर भी जब अपनी एक रचना नाटक का समुचित शीर्षक न दे सके तो उन्होंने उस रचना के शीर्षक का काम पाठकों की रुचि पर छोड़कर उसका नाम "एज यू लाईक" रख दिया।
तो आइये अब हम "मेरी भावना" के शीर्षक पर विचार करें। उक्त बिन्दुओं के आधार पर विचार करने से हम उस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि "मेरी भावना" एक आदर्श शीर्षक है। कवि "युगवीर" इस कसौटी पर पूर्ण सफल हैं। मेरी भावना यह शीर्षक "सागर बूंद समाया" उक्ति को चरितार्थ करता है। वह आकर्षक, कौतूहल उत्पादक है तथा सम्पूर्ण रचना के कथ्य को प्रतिबिम्बित करता हैं।
"मेरी भावना" मात्र युगवीर की या किसी व्यक्ति विशेष की भावना। अभिव्यक्ति नहीं है, अपितु उसे जो भी पढ़ेगा/पढ़ेंगे, पढ़ाता है/पढ़ते हैं, सबकी भावना है/आत्मा की आवाज है। यह बालक, युवा, वृद्ध, स्त्री-पुरुष, फिर वह किसी भी राष्ट्र जाति, सम्प्रदाय, धर्म, कर्म, वर्ण से सम्बंधित क्यों न हो - यह उन सबकी भावना है। रचना का नाम/शीर्षक देने में"युगवीर" के कौशल की हम मुक्त कंठ से प्रशंसा करते हैं। इस सन्दर्भ में डॉ. नेमीचन्द जैन के ये शब्द पठनीय हैं।
"सर्वनाम और नाम दोनों की प्रकृतियां जुदा हैं । सर्वनाम किसी का भी हो सकता है, किन्तु नाम या तो किसी व्यक्ति का होता है या किसी जाति का। "मेरी" कहकर रचयिता ने इस भावना की सीमायें तोड़ दी हैं। कोई भी व्यक्ति इसे "मेरी" कह सकता है। सर्वनाम की सार्थकता उसी में है कि वह किसी एक का नहीं होता, सबका होता है। "मेरी" कह कर हम इसे जहाँ एक ओर व्यक्ति के भीतर भिदने/बैठने/रमने का हुक्म देते हैं, वहीं जब बहुत सारे व्यक्ति इसे "मेरी कहने लगते हैं" तब समाज में एक समग्र क्रांति धड़कने लगती है।"