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प जुगलकिशोर मुख्तार "युगवीर" व्यक्तित्व एवं कृत्तित्व
यद्यपि इस पद्य का स्रोत प्रसिद्ध रूप से भर्तृहरि का अधोलिखित श्लोक ज्ञात होता है परन्तु विविध जैन ग्रन्थों जैसे पद्यनन्दिपंच विंशतिका एक सुभाषित रत्न संदोह, नीति वाक्यामृत आदि में भी इस प्रकार के उल्लेख प्राप्त होते हैं, शोधनीय है -
निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवन्त् लक्ष्मी समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टं, अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा न्याय्यात् पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः ॥
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'मेरी भावना' में पद्य के उपरोक्त अर्थमय समावेश से यह रचना धर्म और नीति की समष्टि ही बन गई है। नीति को भी गृहस्थ धर्म के रूपों में स्वीकार करके युगवीर ने व्यवहार धर्म की आवश्यकता पर बल दिया है। उनका स्पष्ट मत था कि व्यवहार के बिना निश्चय धर्म की प्राप्ति कदापि संभव नहीं । इसी हेतु उन्होंने एकान्त निश्चयाभास के स्खलित एवं धर्म के असंभव रुप का खंडन किया था जो प्रकाशित भी हुआ था ।
मेरी भावना के अन्य स्थल प्रायः आर्ष पूजन के शान्ति पाठ के भाव प्रकाशन के रूप में है। पूजा फल के रूप में निष्काम भक्त की यह प्रशस्त कामना होती है कि सब जीवों को सुख-शान्ति की प्राप्ति हो, सम्पूर्ण विश्व में धर्ममय वातावरण हो । सह, अस्तित्व एवं प्राकृतिक सौम्य परिणति का इच्छुक भक्त सर्वत्र क्षेत्र चाहता है। आचार्य जुगल किशोर जी ने उपर्युक्त विषय को, वासनाओं के प्रति निष्काम किन्तु लोकहित के सकाम रूप को अपनी भावना में आत्मसात किया है। मेरी भावना का अन्तिम छन्द तो अशान्ति राष्ट्र की हीन स्थिति, दुःखआदि समस्याओं का समाधान ही है । अवलोकन कीजिये,
फैले प्रेम परस्पर जग में मोह दूर पर रहा करे । अप्रिय कटुक कठोर शब्द नहिं कोई मुख से कहा करे ॥ बनकर सब युगवीर हृदय से देशोन्नति रत रहा करे । वस्तु स्वरूप विचार खुशी से सब दुख संकट सहा करे ॥