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पं जुगलकिले मुखार "जुमवीर" व्यक्तित्व एवं कृतित्व
(क) मेरी भावना/कवि की भावनात्मक, चिन्तनप्रधान, आत्मसम्बोधिनी आध्यात्मिक रचना है। इसमें कवि ने हृदय को शुचितम बनाने के लिए ग्यारह बार, ग्यारह पदों से बुहारा है। वह कभी सूप की तरह सार-सार को ग्रहण करने एवं निस्सार को निकाल फेंकने के लिए दृढ़ प्रतिज्ञ होता है तो कभी न्यायमार्ग पर अडिग रहने के लिए मृत्यु तक को वरण करने के लिए तैयार हो जाता है।
होऊ नहीं कृता कभी मैं, द्रोह न मेरे ठर आवे। गुण ग्रहण का भाव रहे नित, दृष्टि न दोषों पर जावे।
मेरी भावना, पद क्रमांक -6 कोई बुरा कहे या अच्छा, लक्ष्मी आवे या जावे। लाखों वर्षों तक जीऊ या, मृत्यु आज ही आ जावे॥ अथवा कोई कैसा भी भय, या लालच देने आवे। तो भी न्यायमार्ग से मेरा कभी न पद डिगने पावे।
मेरी भावना, पद क्रमांक-7 पापों और कषायों के त्याग की भावना से उसका हृदय इतना उज्जवल हो जाता है कि अब उसमें अपने पराये का भेद नहीं रहता। उसका हृदय निस्सीम हो जाता है, "वसुधैव कुटुम्बकम्" की भावना उसके हृदय को आलोकित कर देती है, तब वह भावना भाता है कि -
मैत्रीभाव जगत में मेरा सब जीवों से नित्य रहे। दीन-दुखी जीवों पर मेरे उर से करुणा-स्रोत बहे ॥ दुर्जन क्रूर, कुमार्गरवों पर, क्षोभ नहीं मुझको आवे। साम्यभाव रक्खू मैं उन पर, ऐसी परिणति हो जाये।
मेरी भावना, पद क्रमांक - 5 "ध्यान से देखेंगे तो पायेंगे कि "मेरी भावना" एक लघु सामायिक है, जो चित्त में समत्व का रसोद्रेक करती है और हमें एक अच्छा नागरिक ही नहीं, सन्तुलित साधक भी बनाती है।"30
डॉ. नेमीचन्द जैन