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पं. जुगलकिशोर मुख्तार "बुगवीर" व्यक्तित्व एवं कृतित्व
मोक्ष मार्गस्य नेतारं भेतारं कर्मभूभृतां । ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वन्दे तद्गुण लब्धये ॥ आप्तेनोच्छिन्न दोषेण सर्वज्ञेनागमेशिना । भवितव्यं नियोगेन नान्यथा झाप्तता भवेत् ॥
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कवि का हृदय आर्ष मार्गीय श्रद्धा से आपूर्ण है। उसका प्रयास यह रहा है कि आर्ष आगम को मूल रूप से सुरक्षित रूप में ही श्रोताओं को प्रेषित किया जाय । वे संस्कृत के प्रकांड पंडित थे। तत्कालीन जनों के ज्ञान के क्षयोपशम की कमी को अनुभव कर सरल भाषा में आगम का प्रस्तुतीकरण उनका प्रिय विषय रहा है ऐसा मैं मानता हूँ। उन्होंने इस प्रथम पद्म में समन्तभद्र के अनुयायी आ. अकलंकदेव कृत स्तुति के भाव को भी व्यक्त करने हेतु उसके कतिपय शब्दों को पूर्ण रुपेण समाहित कर मुख्तार साध्व ने सफल प्रयत्न किया है। स्तुति का छन्द निम्न प्रकार है
यो विद्या वेदवेद्यं जननजलनिधेमंङ्गिन पारदृश्वा । पौर्वापयर्णविरुद्धं वचनमनुपमं निष्कलंक यदीयं ॥ तं वन्दे साधुवन्धं एकलगुणनिधिं ध्वस्त दोषिद्वषन्तं । बुद्ध वा वर्द्धमानं शतदलनिलयं केशवं वा शिवं वा ॥
आलेख विस्तार के भय से प्रस्तुत श्लोकों का हिन्दी अर्थ यहाँ नहीं लिखा जा रहा है। अब से लगभग एक शताब्दी पूर्व शिक्षा क्षेत्र की जो स्थिति थी तदनुकूल उस समय की लोक हितकारी भाषा के रूप में युगवीर की उक्त प्रथम पद्य की पंक्तियाँ वस्तुतः अति उपयोगी सिद्ध हुई हैं। प्रायः प्रत्येक प्रकाशन में मेरी भावना प्रकाशित है किन्तु प्रथम पद्य तो प्रकाशन के अतिरिक्त सभाओं, गोष्ठियों, चर्चाओं एवं देव दर्शन आदि के प्रसंगों में विद्वानों और सामान्य जनों के द्वारा प्रायः प्रयोग किया जाता रहा है। इस विषय में मुख्तार जी बड़े पुण्यात्मा ही कहे जायेंगे जिनके पवित्र हृदय से निःसृत शब्द जन जन का कण्ठहार बने हुए हैं। मूल में तो यह परम्पराचार्यों की सूक्ति-मणियों का बड़ी सूझ-बूझ से किया गया संकलन ही है। संकलन कर्ता अनुवादक एवं प्रस्तोता इन तीनों रूपों के सिद्धान्ताचार्य युगवीर ज्ञान कलाघट के रूप में शोभायमान हैं।