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पं. जुगलकिपर मुखबार "युगवीर" व्यक्तित्व एवं कृतित्व पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ कर दिया। बिना ग्रन्थालय के किसी संस्थान की स्थापना एवं पत्रिका का प्रकाशन संभव नहीं है। और अनेकान्त पत्रिका उस समय शोध पत्रिका के रूप में ही प्रकाशित हो रही थी।
पं. मुख्तार सा. इस आश्रम के पीठाध्यक्ष और वरिष्ठ.निदेशक थे। अत: उनकी संगठनात्मक क्षमता असन्दिग्ध थी। बाद में समन्तभद्राश्रम वीर सेवा मन्दिर के रूप में परिवर्तित हो गया।
(2) पुस्तकों एवं पाठकों से प्रेम-वीर सेवा मन्दिर ने शोध संस्थान (प्रतिष्ठान) का जब रूप ले लिया, तब उसके निदेशक और ग्रंथपाल मुख्तार सा. ही थे, तथा पं. दरवारी कोठिया, पं. परमानन्द शास्त्री, पं. ताराचन्द्र न्यायतीर्थ, एवं पं. शंकरलाल न्यायतीर्थ शोधार्थी के रूप में अनुसन्धान कार्य कर रहे थे। बिना ग्रन्थालय एवं ग्रन्थपाल के शोध-संस्थान और अनुसंधान सम्भव नहीं है। और पुस्तकों एवं पाठकों से प्रेम किये बिना ग्रन्थालय एवं ग्रन्थपाल संभव नहीं है।
प्रत्येक पुस्तकालय कर्मचारी का मुख्य उद्देश्य होता है कि - पाठक को उसकी पुस्तक से, और पुस्तक को उसके पाठक से मिलाना। किसी ने सच ही कल्पना की है कि ग्रन्थपाल उस पुरोहित के समान होता है जो पुस्तक रूपी वधू को पाठक रुपी वर से मिलाने का कार्य करता है। ऐसा व्यक्ति यह कार्य नहीं कर सकता, जिसे पुस्तकों एवं पाठकों से प्रेम नहीं हो। मुखार साहब यह कार्य स्वयं करते थे, क्योंकि अपने संस्थान के निदेशक और ग्रन्थपाल वे स्वयं थे।
(3) सेवा-भावना-पुस्तकालय व्यवसाय एक ऐसा व्यवसाय है जिसमें कुछ देकर या सेवाकर आनन्द का अनुभव किया जाता है। कविता और साहित्य रचना में भी कवि और साहित्यकार एक अपूर्व आनन्द का अनुभव करता है। संस्कृत काव्यशास्त्री मम्मट ने कविता या साहित्य रचना के निम्नलिखित उद्देश्य बतलाये हैं
काव्यं यशसेऽर्थ कृते व्यवहार-विदे शिवेतरक्षतये। सः परिनिवृत्त्ये कान्ता सम्मिवतयोपदेश-युबे।
काव्यप्रकाशा