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पं जुगलकिशोर मुख्तार "युगवीर" व्यक्तित्व एव कृतित्व
संतोषरूपी अमृत की महत्ता को अन्य कवियों के साथ महात्मा कबीर ने भी इन पंक्तियों में व्यक्त की है -
गोधन, गज-धन, वाजि-धन और रतन धन खान। जब आवै संतोष धन, सब धन धूरि समान ॥
अहंकार की अन्तर्गर्जना से बहरे कानों में शान्ति की शब्दावली कभी प्रवेश नहीं करती है। हम सभी इस बात से सुपरिचित हैं कि घृत की आहुतियाँ यज्ञ के अग्निजात को जिस प्रकार प्रज्जवलित करती हैं, उसी प्रकार ईर्ष्या की आहुतियाँ अहंकार की ज्वालाओं को भी प्रतिक्षण उत्तेजित करती है। इसलिए युगवीर जी हमको अहंकार का त्याग कर क्षमतारूपी धरती पर खड़ा होने के लिए प्रेरित करते हैं। इन शब्दों में देखे
"अहंकार का भाव न रक्खू नहीं किसी पर क्रोध करूँ, देख दूसरों की बढ़ती को कभी न ईर्ष्या-भाव धरु॥ रहे भावना ऐसी मेरी सरल सत्य व्यवहार करूँ, बने जहाँ तक इस जीवन में औरों का उपकार करूँ॥"3
समस्त जगत के प्राणियों पर मैत्रीभाव, साम्यभाव एव दीन दुखियों पर करुणास्त्रोत की वर्षा प्रत्येक व्यक्ति का परम धर्म होना चाहिए। हमको विश्व को एक बनाने के लिए प्रेरित करती है कवि की ये पंक्तियाँ -
मैत्री भाव जगत में मेरा सब जीवों से नित्य रहे, दीन, दुःखी जीवों पर मेरे उर से करुणा-स्रोत बहे। दुर्जन क्रुर, कुमार्ग-रतों पर क्षेभ नहीं मुझको आवे, साम्यभाव रक्खू मैं उन पर ऐसी परिणति हो जावे॥
आचार्य अमितगति ने भी इसी प्रकार की भावना अपने इस श्लोक के माध्यम से व्यक्त की है
सत्त्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं किलष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वं । माध्यस्थ्य भावं विपरीत वृत्तौ, सदाममात्मा विदधातु देव॥
इस प्रकार की "वसुधैव कुटुम्बकम्" की भावना संसार के सभी प्राणियों में यदि हो जाये तो इस धरा पर पुनः स्वर्ग की कल्पना की जा सकती है।