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96 Pandit Jugal Kishor Mukhtar "Yugvoer" Personality and Achievements
प्रथम पद्य में कवि ने सर्वमान्य देव या आराध्य का स्वरुप अंकित किया है। कवि की कामना है कि मेरा मन/मेरा चित्त ऐसे प्रभु की भक्ति में लीन हो, जिन्होंने राग-द्वेष एवं कामादिक पर विजय प्राप्त कर सर्वज्ञता की प्राप्ति की है तथा समस्त जगत को निस्पृह भाव से मोक्षमार्ग का उपदेश दिया है। तीसरी पंक्ति में हमें कवि की अनेकान्तात्मक दृष्टि का भी परिचय प्राप्त होता है।
बुद्ध वीर जिन हरि हर ब्रह्मा या उसको स्वाधीन कहो।'
उनकी मान्यता है कि हम उस आराध्य को किसी भी नाम से पुकारें लेकिन वह आराध्य एक ही है। वह जहाँ कहीं भी जिस किसी नाम से है उसे श्रद्धापूर्वक प्रणाम करते हैं।
सज्जन पुरुषों की व्याख्या करते हुए आचार्य ने कहा है कि वह स्वयं कभी विषयों की आशा न रखते हुए संसार के सभी प्राणियों पर साम्यभाव रखते हुए रात-दिन दूसरों के हितों की रक्षा के लिए अपने हितों का त्याग कर किसी से मनोमालिन्य नहीं करते हैं। कवि की ऐसी समत्व दृष्टि संसार की तमाम संकीर्णताओं को समाप्त कर देती है। भौतिकता की चकाचौंध से दूर रहकर समाज सेवा, परोपकार एवं अपरिग्रही जीवन जीने की प्रेरणा देती है। आज के युग में विज्ञान ने व्यक्ति में इच्छाओं की प्यास जगाकर एवं आवश्यकताओं की भूख उत्पन्नकर जो असन्तोष एवं अतृप्ति का वातावरण बनाया है। उसके लिए प्रस्तुत पद्य एक औषधि रुप है।
जीवन के उत्कर्ष के लिए पांच पापों का विसर्जन अनिवार्य है सही अर्थों में मनुष्य जीवन जीने की ये पांच अनिवार्य शर्ते हैं। उनसे दूर रहकर संतोषरूपी अमृत का पान करना ही कवि की भावना है
"रहे सदा सत्संग उन्हीं का ध्यान उन्हीं का नित्य रहे, उनही जैसी चर्या में यह चित्त सदा अनुरक्त रहे। नहीं सताऊँ किसी जीव को झूठ कभी नहीं कहा करूँ परधन, पर तन पर न लुभाऊँ सन्तोषामृत पिया करूं।"