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५. बुगलकिसोर मुख्तार "युगवीर "व्यक्तित्व एवं कृतित्व प्रकाशित हुई। ग्रंथ प्रकाशित होते ही जैन समाज में खलबली मच गयी। दुराग्रहियों ने उन्हें जान से मारने की धमकी तक दी, पर वे किंचित् मात्र भी विचलित नहीं हुए। अन्त में बाध्य होकर तथाकथित नेताओं को भी उनकी रचनायें स्वीकार करनी पड़ी।
लोहमान व्यक्तित्व-जैन वाङ्मय के इतिहास में इनका लोहा मान लिया गया। यही कारण है कि डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन ने उन्हें साहित्य का भीष्म पितामह कहा है। यदि उन्हें साहित्य का पार्थ भी कहा जाये तो कम ही
'युगवीर' यह उनका उपनाम बहुत ही सार्थक और सारगर्भित है। वे इस युग के वास्तविक 'वीर' है, स्वाध्याय वाङ्मय-निर्माण, संशोधन, सम्पादन प्रभृति कार्यों में कौन ऐसा वीर है जो उनकी समता कर सके? वे केवल युग निर्माता ही नहीं, युग संस्थापक ही नहीं, अपितु युग-युगान्तर निर्माता और संस्थापक है। उन्होंने अपने अद्वितीय व्यक्तित्व से 'युगवीर' नाम को सार्थक किया है।
पारिवारिक कटु अनुभव-"जो-जो देखी वीतराग ने, सो-सो होसी वीरा रें" यह उक्ति पं. जुगलकिशोर के जीवन में पूर्णरूपेण खरी उतरती है। माता-पिता का वियोग, दो पुत्रियों का बचपन में ही वियोग होने से आपका हृदय चलायमान हो गया। इतना ही नहीं 15 मार्च, 1919 को उनके जीवन की आशालता पर तुषारापात होकर कल्पनाओं का महल सदैव के लिए ढह गया। 25 वर्षों की जीवन संगिनी ने उनका साथ छोड़ दिया। ऐसी विषमता में भी मुख्तार जी ने अपनी साहित्य साधना को अक्षुण्ण रखा।
कृतित्व-जिनवाणी के सच्चे सपूत पं. जी के साहित्य साधना का श्रीगणेश सन् 1896 ई.से हो चुका था। अध्ययन और मनन द्वारा वे निष्पतियों को ग्रहण करते थे। निबन्ध व कविता लिखना, समाज सुधारक क्रान्तिकारी भाषणों द्वारा समाज को उद्बोधन करना तथा करीतियों और अन्धविश्वासों का निराकरण कर यथार्थ आर्षमार्ग का प्रदर्शन करना आदि आपके संकल्प