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एक श्रेष्ठ ग्रन्थपाल
डॉ. शोभालाल जैन, जयपुर - 3
श्री पं. जुगलकिशोर जी मुख्तार 'युगवीर' के व्यक्तित्व और कृतित्व का अध्ययन करते हुए मैंने उनके अनेक रूपों से जैसे-कवि, युगवीर, निबंधकार, भाष्यकार, समीक्षक एवं ग्रन्थ परीक्षक, प्रस्तावना लेखक, पत्रकार एवं सम्पादक आदि से अवगत हुआ। लेकिन उनके विशाल व्यक्तित्व एवं चरित्रात्मक गुणों का अध्ययन करते हुए मुझे उनमें एक और रूप के दर्शन हुए, स्पष्ट प्रतीति हुई, जो है एक श्रेष्ठ ग्रन्थपाल का।
मुख्तार सा. व्यवसायिक रूप से इस सेवा में नहीं थे। इसलिये विद्वानों, अनुसंधान कर्ताओं ने उनके इस रूप को अनदेखा किया हो, या उनको इस सेवा से जोड़ना उचित नहीं समझा हो कुछ भी हो सकता है। चूंकि मैं इस सेवा में व्यवसायिक रूप से जुड़ा हुआ हूं, इसलिये मैंने देखा कि एक श्रेष्ठ ग्रन्थपाल में जो गुण होना चाहिये वे, सभी उनमें विद्यमान थे। विद्वानों की संगठनात्मक क्षमता, पुस्तकों एवं पाठकों से प्रेम आदि ग्रन्थपाल के विशेष गुण स्वीकार किये हैं। मुख्तार सा. के उन गुणों की चर्चा यहाँ प्रासंगिक है।
(1) संगठनात्मक क्षमता-समुख्तार सा. में संगठनात्मक क्षमता बड़ी शकितशाली थी। मुख्तार सा. ने अपनी वकालत से अर्जित द्रव्य से वीर सेवा मंदिर भवन का निर्माण करा कर उसे उत्तम लाइब्रेरी से युक्त बनाया था। जिसमें उत्तम कोटि के जैनाजैन ग्रंथों का भण्डार था। विभिन्न प्रकार के कोश ग्रंथ भी विद्यमान थे। विशाल पुस्तकालय जो ग्रंथों से भरी अलमारियों से सुशोभित था। इसके बाद दिल्ली में जब वीर सेवा मन्दिर का विशाल भवन बनकर तैयार हो गया तो मुख्तार सा. सदल-बल विशाल ग्रंथालय के साथ सरसावा से दिल्ली पधार गये। काष्ठ और शीशे की चमकती हुई अलमारियाँ वहीं छूट गयी, और स्टील की अलमारियां दरियागंज भवन में अलंकृत हो गयी। इसका परिचय उन्होंने समन्तभद्राश्रम की स्थापना एवं 'अनेकान्त'