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पं. जुगलकिशोर मुखार "पुगवीर" व्यक्तित्व एवं कृतित्व किरायेदार था और मुख्तार हकीम जी के मेहमान थे। उसने नि:संकोच वह बस्ता मुख्तार सा. को दे दिया, बदले में मुख्तार सा.ने उसे कुछ पैसे देने चाहे पर उसने मना कर दिया। मुख्तार सा. बस्ता लेकर मंदिर चले गये और वहां से बहुत से पुराने अखबार खरीद लाये और पंसारी को दे दिये। भोजनोपरांत दोपहर जब उस बस्ते को टटोला तो उसमें बहुत-सी कृतियां मिलीं और एक ऐसी भी कृति मिल गई, जिसकी उन्हें वर्षों से तलाश थी। उनकी प्रसन्नता
और आनन्द का अनुभव वे ही कर पा रहे थे, यही उल्लास और आनन्द उनके दीर्घजीवी होने का कारण रहा। यही स्थिति मेरी रही और ऐसे ही आनन्द और उल्लास एवं हर्ष का अनुभव मैंने भी किया है और बहुत सी पोथियां तथा गुटके संकलित किए हैं। ऐसी अनहोनी कृतियां जब अचानक मिल जाती है तो इतना अपार हर्ष होता है कि यह भुक्तभोगी ही समझ पाता है। मानों चिन्तामणि रत्न मिल गया हो! मेरी इस आयु का राज भी यही है। मुझे समयसमय पर ऐसी आनन्दानुभूतियां हुई हैं।
शत्रोरपि गुणा ग्राह्या दोषा वाच्या गुरोरपि। शत्रु के भी गुण ग्रहण करने चाहिए और गुरु के भी दोष बताने में संकोच नहीं करना चाहिए।
- वेदव्यास (महाभारत, विराट पर्व, ५११५) नात्यन्तं गुणवत् किंचिन्न चाप्यत्यन्तनिर्गुणम्।
उभयं सर्वकार्येषु दृश्यते साध्वसाधु वा॥ कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है जिसमें सर्वथा गुण ही गुण हों। ऐसी भी वस्तु नहीं है जो सर्वथा गुणों से वंचित ही हो। सभी कार्यों में अच्छाई और बुराई दोनों ही देखने में आती है।
- वेदव्यास (महाभारत, शांतिपर्व, १५1५०)
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