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कुछ संस्मरण डॉ. (पं.) पन्नालाल साहित्याचार्य, जबलपुर
स्वर्गीय पं. जुगलकिशोर जी मुख्तार जैन श्रुत के अद्वितीय विद्वान थे स्व-संपादित ग्रंथों के ऊपर उनकी लिखित प्रस्तावनाएँ सर्वमान्य होती थीं। आप इतिहास के अप्रतिम विद्वान थे। माणिकचन्द्र ग्रंथमला से प्रकाशित संस्कृतटीका युक्त रत्नकरण्डश्रावकाचार के ऊपर आपने जो ऐतिहासिक प्रस्तावना लिखी थी। वह परवर्ती विद्वानों के लिए मार्गदर्शक हुई है।
__ आपने जिनवाणी के प्रकाशनार्थ सरसावा में वीर सेवा मंदिर की स्थापना की और उसके लिए अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया। आपके दर्शन का मुझे कई बार सौभाग्य मिला है।
सन् 1944-45 की बात होगी। सामाजिक निमंत्रण पर मैं सहारनपुर के वार्षिक रथोत्सव में शामिल हुआ था उस समय वहां स्व. पं. माणिकचन्द्र जी न्यायाचार्य भी विद्यमान थे। उत्सव के बाद मैं अपने सहपाठी मित्र पं. परमानन्द जी शास्त्री से मिलने के लिए सरसावा गया था, संध्या के समय हम दोनों मित्र कहीं घूमने चले गये। जब रात के 9 बजे वापस आये तब श्री जुगलकिशोर जी मुख्तार बोले, कहाँ चले गये थे दोनों मित्र। हम आपकी प्रतीक्षा में बैठे हैं। विषय था रत्नकरण्डश्रावकाचार के "मूर्धरूहमुष्ठि वासो, बन्धं पर्यंत बन्धनंचापि। स्थान मुपवेशनं का समयं जानन्ति समयज्ञाः" श्लोक की टीका में मैंने समय का अर्थ काल न लिखकर आचारलिखा था।
"समया शपथा/चार काल-सिद्धांत-संविदः" इत्यमरः। इस कोश के अनुसार समय का अर्थ आचार होता भी है सामायिक करने वाले श्रावक को सामायिक में बैठने के पहले अपने केश तथा वस्त्रों को संभाल कर बैठना चाहिए, जिससे बीच में आकुलता न हो। बैठकर या खड़े होकर सामायिक की जा सकती है। हाथ की मुट्ठियाँ भी बंधी हों, फैली न हो।