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पं जुगलकिशोर मुख्तार "युगवीर" व्यक्तित्व एवं कृतित्व
साथ ले आये हैं और उस पर कुछ कार्य करके यत्र-तत्र भटके-बिखरे जैन शिल्पावशेषों को प्रकाशित करते रहने का उद्योग करेंगे, यह जानकर प्रसन्नता हुई। अवश्य ही इसके लिये यथाशक्ति पूरा उद्योग कीजिये, इससे पुरातत्व की कितनी ही सामग्री सामने आयेगी, जिससे उपकार होगा जिसके श्रेयोभागी आप होंगे। कलकत्ता में अब उनके दूसरे कागज पत्रों की और कौन जाँचपड़ताल कर रहा है? डायरियों में से कुछकाम की बातें मिलने की जरुर आशा है। मेरे पत्रों की एक फाइल भी अलग से बनाई जानी चाहिये। जो पत्र उन्होंने दूसरों को लिखे हैं और जिनकी नकलें उन्होंने अपने पास रखी हैं, उन महत्व के पत्रों की एक फाइल भी होनी चाहिये, इससे अनेक विषयों में उनके विचारों का पता चल सकेगा और अनेक समस्यायें तथा गलतफहमियां भी हल हो सकेंगीं। ऐसे तात्कालिक पत्रों का इतिहास की दृष्टि से बड़ा महत्व होता है। मेरी राय में तो उनकी यादगार में जो स्मृति ग्रन्थ निकाला जाने वाला है, उसमें ऐसे महत्व के पत्रों को प्रकाशित कर देना नये लेखों से ज्यादा अच्छा होगा। ऐसे महत्व के पत्र दूसरों से भी मंगवाये जा सकते हैं जो उनकी सच्ची स्मृति का प्रतिनिधित्व कर सकने में समर्थ होंगे।"
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मेरा अनुरोध है कि आप "समंतभद्र का मुनि-जीवन और आपात्काल" नामक वह लेख अवश्य ही गौर के साथ, एकाग्रचित्त होकर पढ़ने की कृपा करें, जो "स्वामी समंतभद्र" इतिहास में माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला से प्रकाशित रत्नकरण्ड श्रावकाचार की प्रस्तावना के साथ और "जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश " ग्रन्थ में प्रकाशित हुआ है।
शेष कुशल मंगल है। योग्य सेवा लिखें।
भवदीय, जुगलकिशोर
इस प्रकार मेरा यह कहना उचित ही है कि श्री जुगलकिशोर जी मुख्तार, एक ज्ञान-पिपासु, विद्या-व्यसनी, लगनशील अध्येता और धुरंधर विद्वान थे। उनकी समीक्षक प्रज्ञा और विश्लेषक-बुद्धि इतनी कुशाग्र-पैनी थी कि उन्हें " अनन्त जिज्ञासाओं का पुंज" कहना सर्वथा उपयुक्त है। हर आगमाभ्यासी चिन्तक को उनके प्रेरक व्यक्तित्व से प्रेरणा प्राप्त करनी चाहिये ।