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प. जुगलकिशोर मुख्तार "युगवीर" व्यक्तित्व एवं कृतित्व
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अभाव' "" जैनियों का अत्याचार" 'नौकरों से पूजा कराना' 'जैनी कौन हो सकता है' जाति पंचायतों का दण्ड विधान आदि सामाजिक क्रान्ति दृष्टि के सूचक हैं। मुख्तार सा. का यह विश्वास था कि व्यक्ति इकाई के सुधार से ही समाज का पुनरुत्थान सम्भव है। जब तक समाज अन्तर्विरोध, रूढ़ियों और अन्धविश्वासों की चहार दीवारी में कैद रहेगा तब तक न व्यक्ति की चेतना जागेगी और न ही उसमे राष्ट्र के प्रति समर्पण का भाव उत्पन्न होगा। सन. 1916 में मुख्तार सा. (युगवीर) द्वारा रचित 'मेरी भावना' का निम्नलिखित पद्यांश उनकी उदात्त, सर्वोदयी और व्यक्तिनिष्ठ क्रान्ति का द्योतक हैं
मैत्री भाव जगत में मेरा, सब जीवों से नित्य रहे, दीन दुखी जीवों पर मेरे, उर से करुणा स्रोत बहे । दुर्जन क्रूर कुमार्गरतों पर, क्षोभ नहीं मुझको आवे, साम्यभाव रक्खूं मैं उन पर ऐसी परिणति हो जावे ॥
श्रमण संस्कृति की सर्वोदयी भावना का प्रतीक पद्यांश केवल कविकृत कल्पना की सृष्टि नहीं वरन् तत्कालीन सामाजिक विषमताओं के मध्य धार्मिक अनुचिन्तन की फलश्रुति थी। सामाजिक जीवन में यथार्थ अन्तर्विरोधों को उजागर करता कविहृदय 'समताभाव' की सर्वोदयी भावना अभिव्यक्त करता है । 'यादृशी भावना यस्य सिद्धि र्भवति तादृशी' के आलोक में मुख्तार सा. ने सामाजिक चिन्तनधारा को धार्मिक धरातल से जोड़ने में सेतुबन्ध का कार्य किया है। इतना ही नहीं, धार्मिक धरातल पर फैली अनेक विसंगतियों पर इतनी गहरी चोट की कि तत्कालीन धर्मान्ध रुढ़िग्रस्त सामाजिकों में दोष उत्पन्न हो गया, लेकिन उन्होंने उसका सामना आगमनिष्ठ तार्किक दृष्टि से किया। अपनी सत्यान्वेषण परक दृष्टि तज्जन्य अवधारणाओं से उन्हें कोई कमी विचलित नहीं कर सका।
आचार्य समन्तभद्र के 'रत्नकाण्डश्रावकाचार पर भाष्य स्वरुप 'समीचीन धर्मशास्त्र' के रूप में प्रकाशन हुआ तो अनेक परम्परागत विद्वानों और साधुवर्ग ने नाम परिवर्तन को लेकर अनेक आरोप प्रत्यारोप किए: परन्तु वे अडोल और अकम्प बने रहे। स्वतन्त्रयोत्तर काल की चतुर्दिक आर्थिक, भौतिक प्रगति ने भरतीय सामाजिक परिवेश को जिस द्रुतगति से प्रभावित किया है, उससे सभी