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4 जुगलकिशोर मुखार "युगवीर" व्यक्तित्व एवं कृतित्व वाक्य में प्रयुक्त होने तक ही उनको सीमा रह गई है। सम्पूर्ण राजनैतिकसामाजिक परिवेश लोभ में आकण्ठ निमग्न है और अब तो धार्मिक क्षेत्र भी लोभ से आवृत्त हो चुका है। यद्वा तवा व्याख्यायें, भाष्य और कल्पित अवधारणाओं को आगम के परिप्रेक्ष्य में सुस्थापित करने का विधिवत् सुनियोजित दुष्चक्र, प्रवहमान है। इस के मूल में है - धर्म की आड़ में धनार्जन एवं ख्याति की प्रबल आकांक्षा। इस अतृप्त आकांक्षा को पूरा करने के लिए याथातथ्य कथन शैली का अभाव तो हो ही रहा है साथ ही सत्याग्रही दृष्टि और सत्याग्रह-भाव भी तिरोहित हो रहा है। धन और ख्याति का व्यामोह कालदोष के ब्याज से यथार्थ तथ्य कथ्य को समाप्त कर रहा है और आज का विद्वत्वर्ग कारवां गुजर जाने की बाट जोह रहा है। यह हर प्रसंग को ऊपर से गुजर जाने देने में विश्वास कर रहा है। ऐसी स्थिति में आगम रक्षा का पूरा भार यतिवर्ग ढो रहा है, जिससे उनकी साधना में भी स्खलन हो रहा है और विज्ञजन गहरी निद्रा में निश्चिन्त है।
ग्रन्थ परीक्षा-सम्यदृष्टि का पाथेय-मुख्तार सा. ने इस ग्रन्थ के माध्यम से तत्कालीन प्रभावी भट्टारकों द्वारा जैन सन्दों में अपमिश्रण किये गए अनेक वैदिक प्रसंगों को सप्रमाण उद्घाटित किया। परिणामस्वरुप उन्हें खत्म कर देने (जान से मारने) तक की धमकी दी गई, जिसका उन्होंने दृढ़ता से सामना किया।
आज भट्टारक परम्परा का अस्तित्व उस रूप में तो नहीं है जिस रूप में अतीतकाल में था, फिर भी आजकल अनेक ऐसे सन्दर्भ हैं, जिनमें अपमिश्रण का कार्य धर्म और परम्परा की ओट में किया जा रहा है और उस और विज्ञजनों की राजनिमीलक दृष्टि मिश्रित ही हास्यास्पद और चिन्तनीय है। कहीं रजनीश साहित्य का अपमिश्रण हो रहा है तो कहीं व्याकरणाश्रित भाषा सुधार को सुनियोजित योजना के अन्तर्गत मूल-आगमों का स्वरुप निखारे जाने का प्रयत्न चल रहा है तो कहीं पर अपनी विद्वत्ता को प्रतिष्ठापित करने के लिए गन्ध सन्दों को ही परिवर्तित कर दिया जा रहा है। यह अपमिश्रण अनेकान्त जिनशासन की प्रभावना का अंग तो नहीं ही बन सकता है। हाँ, इसे स्वार्थपूर्ति का साधन और तदनुरूप आचरण की संज्ञा अवश्य दी जा सकती है। मुखार