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पं. जुगलकिशोर मुखार "युगवीर" व्यक्तित्व एव कृतित्व
श्री 108 उपाध्याय ज्ञानसागर जी के सानिध्य में तिजारा में इस विद्वत् गोष्ठी का आयोजन किया गया है। यह उपाध्यायश्री कि गुणग्राही दृष्टि का प्रभाव है। क्षुल्लक अवस्था में सागर रहकर बड़ी तन्यमता के साथ जो उन्होंने ज्ञान-अर्जन किया है। उसका एक अनूठा संस्मरण है। इनके साथ श्री क्षुल्लक सन्मति सागर जी सभाओं में बड़े जोर-शोर से प्रवचन करते थे। एक दिन मैंने आपसे अनुरोध किया महाराज जी आप भी बोलिए, उन्होंने उत्तर दिया - अभी कुछ सीख लेने दीजिये, यह बोलने का विकल्प हमारे ज्ञानार्जन में बाधक हो सकता है। उनके चरणों में मेरा बारम्बार नमोऽस्तु स्वीकृत हो। इस जीवन में अब आपके दर्शन असम्भव से हो रहे हैं।
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विद्यातपोवित्तवपुर्वयः कुलैः
सतां गुणैः षड्भिरसत्तमेतरैः । स्मृतौ हतायां भृतमानदुर्दशः
स्तब्धा न पश्यन्ति हि धाम भूयसाम्॥ सज्जनों के लिए गुण-स्वरूप विद्या, तप, धन, शरीर, युवावस्था और उच्चकुल- ये छह दुष्टों के लिए दुर्गुण हैं, जिनके कारण विवेक के नष्ट होने पर अभिमानी और दोष-पूर्ण दृष्टि वाले होकर वे ढीठ लोग महापुरुषों की तेजस्विता को नहीं देख पाते।
__ -भागवत (४।३।१७) किं वर्णितेन बहुना लक्षणं गुणदोषयोः।
गुणदोषदृशिर्दोषो गुणस्तूभयवर्जितम् । गुण और दोष के लक्षण बहुत क्या बताए जाएं? गुण और दोष दोनों की ओर दृष्टि जाना ही दोष है और गुण है दोनों से अलग रहना।
-भागवत (११॥ १९॥ ४५)
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