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संस्मरण
पं. अनूपचंद न्यायतीर्थ, जयपुर
सन् 1936-37 की बात है जब मैं गुरुवर्य पं. चैनसुखदास जी न्यायतीर्थ के सान्निध्य में जैन महापाठशाला- आज का दिगम्बर जैन आचार्य संस्कृत महाविद्यालय, जयपुर में प्रवेशिका कक्षा में पढ रहा था। पंडित जी स्वयं कालेज में ही रहते थे एवं वहीं छात्रावास में भोजन करते थे। गर्मी का समय था । प्रातः जब मैं पढ़ने हेतु विद्यालय में गया सो पंडित जी के पास दो व्यक्तियों को वार्तालाप करते हुए देखा एक व्यक्ति अधेड़-सा लम्बी मूंछों वाला, गेरुआ रंग का कुर्ता तथा टोपी लगाये तथा दूसरा सफेद कुर्ता टोपी लगाये था। धोती सहित सभी वस्त्र खादी के थे। सभी जैन ग्रंथों, ग्रंथ कर्ताओं, ग्रथ भण्डारों तथा पाण्डुलिपियों के सम्बन्ध में बातचीत कर रहे थे। पंडित साहब ने मुझे भी बैठ जाने का इशारा किया और मैं भी बैठ कर उनकी बाते सुनने लगा ।
पंडित जी ने कहा कि ये दोनों सज्जन दिल्ली से पधारे हैं और जैनधर्म साहित्य के प्रकाण्ड विद्वान् हैं। इनमें बड़े पं. जुगलशिोर जी मुख्तार हैं और दूसरे पं. परमानन्द जी शास्त्री हैं। मैंने दोनों को प्रणाम किया और आशीर्वाद प्राप्त किया यह मेरा पहिला परिचय था ।
पंडित चैनसुखदास जी ने श्री भंवरलाल जी न्यायतीर्थ, पं. श्री प्रकाशजी एवं श्री रामचन्द्र जी खिन्दूका मंत्री श्री महावीर जी क्षेत्र को बुलवाया और आमेर के भट्टीरकीय शास्त्र भण्डार के ग्रंथों के देखने का प्रोग्राम बनाया तथा वहां गये। सभी वहां के विशाल शास्त्र भण्डार को देख कर आश्चर्य चकित थे। दोनों विद्वानों ने कुछ ग्रंथों को देखा तथा उनमें से कुछ पाइन्ट लिखे । ज्ञात हुआ कि मुख्तार साहब कुछ ऐसे ग्रंथों की प्राचीन पाण्डुलिपियों की खोज में है जो उनके समीक्षा ग्रंथों के लिये उपयोगी हो। दोनों ही विद्वान जयपुर में लगभग 8 दिन ठहरे और रोजाना आमेर जाकर आवश्यक जानकारी लेते रहे।