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18 Pandit Jugal Kishor Mukhtar Yugveer" Personality and Achievements था। पं. परमानंद जी से मिला-जुला करता था और कुछ लेख लिखा करता था तथी 1960 के लगभग मैंने दिल्ली के शास्त्र भंडारों में स्थित पांडुलिपियों को Cataloges का कार्य शुरु कर दिया था, वहां से जो महत्त्वपूर्ण शोध सामग्री मिलती, उसकी चर्चा में जैन पत्रों को करता तथा शोध पूर्ण लेख 'सन्मति संदेश' में प्रकाशित करता, जिन्हें देखकर स्व. मुख्तार सा. बड़े खुश होते और मुझे बुला लिया करते और कुछ काम भी कराते। सन् 1946 की अपेक्षा अब तक ज्ञान में कुछ परिवर्द्धन भी हो गया था तथा परिपक्वता आ चली थी। मैंने जैन इतिहास और पुरातत्त्वकों ही अपना लक्ष्य बनाया और उसी पर आज तक चल रहा हूँ। इन दिनों मुझे मुख्तार सा. का जो भी ग्रंथ प्रकाशित होता, उसकी एक प्रति अपने हस्ताक्षरों सहित मुझे अवश्य ही देते। ऐसी उनकी प्रदत्त बहुत-सी किताबें मेरे पास चिन्तामणि रत्न के समान सुरक्षित हैं। कभी-कभी मन के किसी कोने में हक-सी उठती है कि काश! सन् 1946 में वी.से.मं. न छोड़ा होता तो जैन शोध खोज में और भी अधिक प्रगति कर पाता। ऐसा सुन्दर शोधपूर्ण ग्रंथों से भरा-पूरा पुस्तकालय जैन समाज में अन्यत्र दुर्लभ था। इसकी ख्याति, सुनकर सभी जैन-जैनेतर लोग यहां आते रहते और शोध कार्य करते रहते। अब यहां से बहुत से बहुमूल्य ग्रन्थ चले गये हैं। वी.से.मं की वर्तमान स्थिति से रोना आता है, पर क्या करें, अतीत की पुण्य स्मृतियों से ही संतोष करना पड़ता है। मुख्तार सा. जैसा दिव्य जीवन बहुत ही कमलोगों का रहा होगा। वे सर्वथा निर्व्यसनी थे, यदि कोई व्यसन भी था तो केवल ग्रंथों का, उनकी जीवन चर्या सवल मुनितुल्य थी। मुख्तार सा. मनुष्य थे अतः कुछ मानवीय दुर्बलताएं होना स्वाभाविक हैं, पर उनके सद्गुणों के आगे सारी दुर्बलताएं छिप जाती थीं। लोग उनकी दुर्बलाताओं को नगण्य मानते थे। उनका शरीर सुगठित और सुंदर था, 85 वर्ष की आयु तक कठोर परिश्रम किया करते थे। सरसावा में देखा है कि उनकी टेबिल शोधग्रंथों से पटी रहती थी और वे प्रतिदिन 16-16 से 18-18 घंटे तक शोधरूप लेखन कार्य में व्यस्त रहते थे, दिल्ली आकर उन्होंने अपनी भूल को समझा और पछताते रहे। जैने समाज या वी.से.मं. की कार्यकारिणी के सदस्य इतने कृतघ्न निकले कि अंतिम दिनों उनकी दैनिक परिचर्या के लिए एक नौकर तक की व्यवस्था न कर सके। मैंने देखा है कि वे अपना सारा काम