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पं. जुगलकितर मुखार "बुगवीर" व्यक्तित्व एवं कृत्तित्व लगा, सरसावा में जहां शीशे से झांक कर ही ग्रंथ का पता लग जाता था वहां, यहां वे स्टील की अंध कोठरियों में सुरक्षित और व्यवस्थित कर दी गई। जहां तक मेरा विचार है इस सब श्रमसाध्य कार्य का श्रेय स्व. पं. परमानंद जी शास्त्री को जाता है, परमानंद जी को एक-एक ग्रंथ का पता था जब कभी भी कोई ग्रंथ की जरूरत पड़ी पंडित जी ने कहा और उन्होंने बिना किसी विलम्ब के तुरन्त ही उसी ग्रंथ पर उंगली धरी और ग्रंथ निकाल कर दे दिया। वे वी.से.मं. के बड़े ही समर्पित विद्वान थे। वी.से.मं. का इतिहास पं. परमानंदजी के अवदान बिना अधूरा लगेगा, उन्हें संस्था के प्रति बड़ी लगन ओर निष्ठा थी। वे मुख्तार सा. के अत्यन्त विश्वासपात्र थे, पर दिल्ली के वी.से.मं. के अधिकारियों ने उनके साथ जो दुर्व्यवहार किया, वह समाज के लिए निश्चय ही शर्म और कलंक की बात है। वृद्धावस्था में वे बड़ी निरीह स्थिति में दिवंगत हुए। उनकी पत्नी तो सरसावा में ही दिवंगत हो गई थी। एक बच्ची जिसका नाम सरोज था, उसका विवाह यहीं मेरठ के आस-पास कहीं कर दिया था। केवल दो लड़के थे अशोक और गुलाब वे यहीं-कहीं दिल्ली में रह रहे हैं। गुलाब तो शायद शाहदरे में घर जंवाई बन गया है। पं. जी की अपनी अच्छी लायब्रेरी था तथा शोध परक अप्रकाशित सामग्री और नोट्स वगैरह बहुत ही महत्वपूर्ण और विपुल मात्रा में थे, जिन्हें गुलाब ने कुछ मूल्य लेकर बेच दिया है। सन् 1946 में सरसावे में था, तब इन छोटे-छोटे बच्चों के साथ खूब खेला करता था, मुझे बच्चे बहुत ही प्रिय हैं। अभी भी इस 73 वर्ष की आयु में अपने पोते-पोतियों के साथ खेलकर स्वयं ही प्रसन्न और स्वस्थ रहने का प्रयत्न करता हूं तथा बच्चे भी प्रसन्न रहते हैं।
बा. छोटेलाल जी और स्व. मुख्तार सा. के बीच वैमनस्य के कारण दरियागंज वासी एक व्यक्ति थे, जो बड़े ईर्ष्यालु और व्यवहार कुशल थे, उन्हें इन दोनों का भक्तिभाव रुचिकर न लगा और इनके संबंधों को दूषित कर दिया। चूंकि उनका स्वर्गवास हो गया है अत: नामोल्लेख करना नैतिक नहीं है पर उनमें धूर्तता कूट-कूटकर भरी थी, वे संस्था में अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहते थे। उसे हथियाना चाहते थे। जब मैं जुलाई 1957 में दिल्ली शासकीय सेवा में आ गया तो वी.से.मं. के प्रति सम्मान होना स्वाभाविक ही