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पं. गुगलकिशोर मुखार “भुगीर" व्यक्तित्व एवं कृतित्व प्रकाशन की स्व. बाबू राजेन्द्र प्रसाद जी भारत के प्रथम राष्ट्रपति ने अपनी आत्म कथा में भूरि-भूरि प्रशंसा की है। उनके विषय में विशेष जानकारी के लिए प्रेमी अभिनंदन ग्रंथ दृष्टव्य है, जो अभिनंदन ग्रंथों की श्रृंखला में सर्वप्रथम है। ऐसे प्रेमी जी के आग्रह पर मुख्तार सा ने 'जैन हितैषी' का संपादन कर सन् 1919 में अपने कंधों पर धारण किया और उसे सर्वांगीण रूप से चमका दिया। प्रेमी जी और मुख्तार सा के मणि कांचन संयोग ने 'जैन हितेषी' को ऐसा चमका दिया कि आज भी लोग उसके एक-एक अंक के लिए भटकते हैं, वे बड़े भाग्यशाली हैं जिनके पास 'जैन हितेषी' की अपनी ही चमक दमक थी जिसके लिए उपर्युक्त जुगल जोड़ी श्रद्धा और आदर की पात्र है।
स्व. मुख्तार सा. ने सन् 1929 में अनेकान्त' मासिक पत्र की स्वयमेव संपादन और प्रकाशन दिया और उसे इतनी ऊंचाई पर पहुंचा दिया कि आज भी प्रबुद्ध और साहित्यानुरागी अन्वेषक उसकी एक-एक किरण के लिए लालायित हैं। अब तो 'अनेकान्त' की वह प्रतिष्ठा शून्यवत् रह गई है जैसेतैसे साल में तीन-चार अंक (किरण) प्रकाशित हो जावें तो गनीमत है। ऐसे श्रेष्ठ विद्वान् साहित्य सेवक, समाज सुधारक, जैन पुरातत्त्व और इतिहास के मर्मज्ञ मनीषी की निस्वार्थ सेवाओं का समाज ने कभी भी कोई मूल्यांकन नहीं किया और न ही उनके प्रति कभी सम्मान या श्रद्धा के फूल चढ़ाए, जिससे हम उनके ऋण से उऋण हो सकें।
सहारनपुर का रुढ़िवादी जैनसमाज सदा उनसे विमुख रहा और उनका तिरस्कार करता रहा, पर सन् 50 के दशक में कुछ उत्साही युवकों ने उनके सम्मान का आयोजन किया, जिसकी रिपोर्टिंग अनेकान्त के एक अंक में हुई थी, पर उसका संपादन मुख्तार सा. ने नहीं किया था। उस श्रेष्ठ कार्य को पं. कन्हैया लाल मित्र प्रभाकर ने अपनी चातुर्यमयी बुद्धि और स्वर्णिम लेखनी से केवल उसे एक किरण को इतने अधिक परिष्कृत तथा सुसज्जित रूप में प्रकाशित कराया था, जिससे मुख्तार सा. के व्यक्तित्व एवं कृतित्व को भलीभांति सजा सम्हाल कर जैन समाज को दिया था कि जो कोई उस अंक (किरण) को पढ़ेगा, उसकी सर्वाङ्गीण जानकारी में बहुत अधिक बढ़ोतरी होगी। वह