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जुगलकिशोर मुहार "युगधीर" व्यक्तित्व एवं कृतित्व महिने के अंत में रुपया अना पाई के रुप में जोड़कर काट लेते और शेष वेतन दे देते थे। पहले वेतन के साथ किराया भी दिया था।
मेरे कमरे में एक पुराना सा पुराने टाईप का चर्खा रखा था, चूंकि मैंने चर्खा काता था, अतः वह चर्खा मुझे अच्छा लगा और उस पर हाथ आजमाई करने लगा। आगे चलकर गांधीवादी पेटीवाला खरीद लिया जो आज भी मेरे पास सुरक्षित है मेरे पौत्र-पौत्री एवं धेवते-धेवती उस चर्खे को देखने के लिए लालायित रहते हैं, सूत कैसे निकलता है, यह जानने को उत्सुक रहते हैं। इस चखें से मैंने सेरों सूत काता है नमूने के लिए अभी भी कुछ गुत्थियां घर में रखी हैं पर मुझे हार्दिक खेद है कि मैंने जो सूत काता वह गांधीवादी कार्यकर्ताओं को सदुपयोग हेतु दिया पर मुझे उसका कुछ भी श्रेय नहीं मिला सका अत: खद्दरधारियों के प्रति मन में ग्लानि सी हो गई, इतना सब तो सरसावा के बारे में हुआ अब सरसावा के संत श्री जुगलकिशोर जी के विषय में सुनिये
जुगल किशोर जी का जन्म मगसिर शुक्ला एकादशी वि. सं. 1934 तदनुसार 21 दिसंबर 1877 को सरसावे के लाला नत्थूमल जी नाथूलाल नाथीमल जी के घर मातुश्री भोई देवी की कुक्षि से हुआ था, 81वें जन्मदिनवस पर मैंने 21-12-1958 को नवभारत टाइम्स हिन्दी में उनका जीवन परिचय सचित्र प्रकाशित कराया था। बालक जुगलकिशोर जी की प्राथमिक शिक्षा सरसावा के प्राइमरी स्कूल में हुई। वे पांच वर्ष की आयु में ही उर्दू-फारसी पढ़ने लगे थे, वह युग था भी उर्दू-फारसी का, 13 वर्ष की आयु में बालक जुगलकिशोर को गुलिस्तां और वोस्तां जैसे फारसी के कठिन काव्य मौखिक याद हो गये थे। बालक जुगलकिशोर बचपन से ही बड़े मेघावी एवं प्रतिभा संपन्न श्रमशील छात्र थे उन्हें हर साल वजीफा मिलता था प्रायमरी शिक्षा समाप्तकर जुगलकिशोर जी सहारनपुर के हाई स्कूल में प्रविष्ट हो गये। घर में धार्मिक संस्कारों की इतनी अधिक दृढ़ता आस्था और दृढ़ निष्ठा हो गई थी कि वे उस कच्ची आयु में भी छात्रावास में रहते हुए नियमित पूजापाठ एवं शास्त्रस्वाध्याय किया करते थे। एक दिन एक छात्र धृष्टता वश उनके पूजास्थल पर जूते पहिने आ गया तो बुगल किशोर जी को बड़ा क्रोध आ गया और