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अनेकान्त
[वर्ष १०
उसे संगम पत्र में प्रकट कर रहे हैं जिसमें जनताकी सत्यता-यथार्थता अथवा वास्तविकताके साथ भारी विरोध दीख पड़ता है। इस विषयमें लोकहित क्या और अधिक लोकहित किसमें है यह आधारभूत खास बात ही विचारणीय रह जाती है। प्रस्तु, लेखमें दो-एक बाते और भी ऐसी रह गई है जो लोगोंको अकसर अखरा करती हैं, अच्छा होता यदि उनका भी स्पष्टीकरण साथमें करदिया गया होता । लेख सत्यभक्रजीका परिचय पानेके लिये अच्छा उपयोगी और पढ़नेके योग्य है आशा है अनेकान्तके पाठक उसे पूरा हो पढ़नेकी कृपा करेंगे-अधूरा नहीं । सम्पादक]
पाठक पूछेगे कि क्या आप कोई पहेली है जो या राम आदिके नामसे शारीरिक चिकित्सा करने लोगोंकी समझमें नहीं आते ? मैं कहूँगा कि अपनी वालेका विरोध करता है, सृष्टिकी उत्पत्ति और समझमे मैं पहेली नहीं हूँ क्योंकि मै न परस्पर विकास आधुनिक विज्ञानके अनुमार मानता हूँ न विरोधी बातें कहता हूँ न अपने विचारोंको ऐसे कि धमशास्त्रोंमें बताये गये तरीकेसे, कुरूढ़ियोंका दुरंगे शब्दोंमें रखता हूँ कि लोग ठीक तरहसे निर्णय विरोधी हूँ, परिवतन या सुधारको सदा तैयार न कर पायें । समय समयपर कुछ लोगोने प्रशंसा- रहता हूँ, दैववादका विरोधी और पुरुषार्थवादका के रूपमें और कुछ लोगोंने मजाकके रूपमे यही समर्थक हूँ, साम्प्रदायिकता जातीयता यहां तक कि कहा है कि मैं बड़ा स्पष्टवादी हूँ, मुझे कहीं उलझन मनुष्यताकी उपेक्षा करनेवाली राष्ट्रीयताका भी नहीं है मुझे मेरा मार्ग स्पष्ट दिखाई देता है आदि। विरोधी हूँ, इत्यादि बातोंको देखकर कौन न कहेगा फिर भी ऐसे लोगोंकी संख्या कम नहीं है जिनके कि मैं बुद्धिवादी अर्थात् युक्तिवादी हूँ? मैं स्वयं लिये मैं पहेली हूँ। साधारणतः लोग मुझे बुद्धिवादी अपनेको बुद्धिवादका समर्थक मानता हूँ। समझते हैं। मैं प्राचीनताको महत्व नहीं देता, किसी इतनेपर भी अगर कोई ईश्वर परलोक या शास्त्रको पूर्ण प्रमाण नहीं मानता अलौकिक आत्माके अमरत्वपर विश्वास करता है तो अतिशयोंपर विश्वास नहीं करता, भूत पिशाच साधारणतः उसका विरोध नहीं करता, द्वैत या आदिकी मान्यताओंका जोरदार खण्डन करता हूँ, अद्वैत माननेवालेसे नहीं चिढ़ता मूर्तिका उपयोग अनीश्वरवादी और अनात्मवादी मार्क्स आदि तक खुद करता हूँ, भावनाजगाने वाली प्रार्थनाओंमे को योगी पैगम्बर तीर्थकर मान लेता हूँ, सर्वकाल भाग लेता हूँ, पुराने धर्मो और पैगम्बरोंका सन्मान सर्वलोकके प्रत्यक्षको असम्भव कहकर उसका खूब करता हूँ, भावनाको खुराक देने के लिये सत्यलोकखंडन करता हूँ, विज्ञानके विरुद्ध कोई घटना नहीं के कल्पित चित्र खींचता हूँ । स्व-परकल्याणकी मानता, मंत्र तंत्र आदिकी प्राचीन मान्यताको दृष्टिसे किस ढंगसे इनका समन्वय किया जाय यही गपोड़ा कह देता हूँ, हर बातमे उपयोगितावादसे बताता हूँ। मतलब यह कि अमुक ढंगकी आस्तिकताकाम लेता हूँ, कोई आदमी अगर किसी भी धर्मको से मुझे चिढ़ नहीं है, न पुराने शब्दोंका उपयोग नहीं मानता, सिर्फ नीति सदाचार आदिको मानता करनमे मुझे कोई इतराज है । हां ! उसके अर्थमें है तो भी मैं सन्तुष्ट होजाता हूँ, नीति सदाचारके कहीं कछ खराबी मालूम होती है तो उसका अर्थ पुराने रूपोंसे बँधा हुआ नहीं हूँ इसीलिये शीलको जरूर सधार लेता हूँ । अध्यात्मके नामपर जो महत्व देनेपर भी ब्रह्मचर्य के गीत नहीं गाता, पूजा दम्भ, अकर्मण्यता आदिका प्रचार होता है उसका नमाज प्रेयर आदिमें व्यक्तिको स्वतंत्र रखता हूँ, विरोध करता हूँ फिर भी मनोविज्ञानको भुलाता इनकी आवश्यकता न माननेवाले पर भी असन्तुट नहीं हूँ। जिन बातोंका मनोवैज्ञानिक दृष्टिसे नहीं होता, पूजा-नमाजसे, या मन्दिर-मसजिदसे, सदुपयोग होता है उनका प्रतिपादन भी करता हूँ।