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अष्ट सहस्त्रीकी एक प्रशस्ति
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[ कई वर्ष हुए, एटाके बड़े मन्दिरके शास्त्रभण्डारको देखते हुए मुझे प्राप्तमीमांसालंकृति अर्थात् अष्टपहमीकी एक प्रति दखनेको मिली थो, जिसको पत्रसंख्या ३४३ है और जिसपर ग्रन्थ नं० ४८ पडा है। यह प्रति जारम्बी वाले पं० जीवारामजीक हाथकी लिग्वी हुई है, संवत् १९४० में लिखी गई है और संवत् १६४१ में इस प्रतिको उक्त पडितजीसे छटोलालने प्राप्त किया है। पं. जीवारामजीने जिस प्रतिपरसे यह प्रति उतारी है वह ज्येष्ठ सुदि त्रयोदशी संवत् १७६२ को तक्षकपुरके नेमिनाथ-मंदिरमें लिखी गई है और उसे नरेन्द्रकीति गुरुके शिष्य पं० लालचन्द्रने लिया है, जो उस समय स्याद्वादविद्याके अध्ययनमें अग्रगण्य थे और जिन शिष्य १० लक्ष्मीदासने वादिराज श्रेष्ठिके मुग्वसे इस पवित्र शास्त्र (अष्टसहस्री) का अध्ययन किया था । उस प्रतिके श्रन्नमें उनकी लेखक प्रशस्ति लगी हुई थी, जिसमे अष्टमहम्रीकी स्तुति भी दी हुई है और अन्य भी कुछ खास बातोंका उल्लेख है। इस प्रशस्तिकी भी पं० जीवारामजीने अपनी प्रतिमें नकल उतारी है और यह बहा ही अच्छा किया है। यह प्रशस्ति दसवे परिच्छेदकी समाप्ति के बाद "श्रीमदकलंकशशधरकुलविद्यानन्दयभवा भूयात् । गुरुमीमांसालंकृतिरष्टमहसी पतामृद्धये ॥ ॥ इति श्रीमदाप्तमीमामालंकृति. पूर्ण ॥ छ।" इन वाक्योंको दनक अनन्तर “अथ प्रशस्ति" इस वाक्यसे प्रारभ होती है। अत: यहाँपर विद्वानो तथा इतिहासनीकी जानकारीके लिये इस प्रशस्तिको ज्यो-का-त्यों उद्धृत किया जाता है जहाँ कही कुछ शब्दाऽशुद्धि जान पडो उपका संकेत ब कटके भीतर कर दिया गया है। इस प्रशस्तिक साथ जुडी हुई अष्टमहम्रीको स्तुतिमें एक खास बातका उल्लेख किया गया है और वह है 'मामन्तभद्ग' नामकी वरवृत्ति पुस्तकका-स्वामी समन्तभद्र के द्वारा स्वोपज्ञ वृतिक रूपमें लिखे गये उत्तम टीका-ग्रन्थका -उल्लेख, जिसे पृथ्वीपर प्रसिद्ध बतलाया है और लिग्या है कि 'इन कार्णाटक तथा गोर्जर टीकाकारोका कोई खास विशेष नहीं है, 'मामन्तभद्र' नामकी वरवृत्ति पुस्तक सबको समानरूपम बराबर इष्ट रही है सभीने उसे अपनाया है। इससे प्राचार्य वमनन्दीने दवागमवृत्तिक मंगलाचरणमें जिम 'सामन्तभगमत' का उल्लेख किया है, यार उमे बन्दना की है वह इस 'मामन्तभद्र' वृत्तिका ही उल्लेख जान पड़ता है । इसी तरह शाकटायन व्याकरणका अभयचन्द्रसूरि-कृत वृत्तिमें, 'उपज्ञात' सूत्रकी व्याख्या करते हुए, जो उदाहरण स्वोपज्ञ कृतियोंके दिये है उनमें 'सामन्तभद्र महाभाष्यम्' नामका उदाहरण भी इसी वरवृत्तिकः द्यातक है जिपक लिये वहां 'महाभाष्य' शब्दका प्रयोग किया गया है। इन सब उल्लेवोपरम ऐसा मालूम होता है कि स्वामी समन्तभद्र के नामपर जो महाभाग्य चढा हया है वह संभवतः उनक देवागमसूत्रपर रचा हया उनका स्वोपज्ञ भाप्य है । इस विषयकी विशेष खोज होनेकी जरूरत है। विद्वानोंको इसके लिये प्रयत्न करना चाहिये ।-सम्पादक]
अथ प्रशस्तिः
वत्म नेत्रषडश्वमोम१७६निहित ज्यष्ठं च मासेन शुभ्र पक्ष इति त्रयोदशदिने श्रीतक्षाकाख्य पुरे । नेमिस्वामिगृहे व्यलीलिदिदं देवागमालंकृत[:] पुस्तं पृज्यनरेद्रकीर्तिसुगुरोः श्रीलालचन्द्रो वदुः ।। १ ।। विद्यविद्याविबिदा बुधानां पराजये पुष्टतरा बभूव । स्थाद्वादविद्याध्ययनेग्रगण्यः श्रीलालचंद्रो भुवि सार्थनामा ।। २ ।। तबोध्यैः कविवादिवाग्मिप्रगुणालंकारवद्भिः समा