________________
किरण ११-१२ ] मोहनजोदड़ोकी कला और श्रमण-संस्कृति
४३६ भशोक-कालीन धर्मचक्र के समान स्पष्टतया नाभि, रात, शुक्ल पक्ष कृष्णपक्ष, उत्तरायण और दक्षिणानेमि और आरोंसे युक्त चक्राकार है। परन्तु यन, उत्सर्पिणी और अवसर्पिणीमय द्वैततापूर्णकालसिन्धुदेशसे प्राप्त दण्डोके चित्रोंमे उक्त प्रकारके चक्र के साथ विकास और हासको प्राप्त होता हुआ, धर्मचक्र देखने में नहीं आते। इनमें से प्रत्येकमें नित नई हालतोंमेंसे गुजरता हुआ, नितनये रूप और एक दूसरेके ऊपर थोड़ासा फासला देकर दो दो सौन्दर्यको पसारता हुआ, और व्यवस्थाके साथ भाजनोंकी आकृतियां बनी हुई हैं। इनमेसे नीचका अक्षय चक्रके समान नृत्य करता हुआ निरन्तर भाजन तो स्पष्टतया अर्धगोलाकार प्यालेके रूपका चला जारहा है, इसका कभी विच्छेद नहीं । जगकी है, जिसके नीचे के भागमे घंटियों सरीखीं चीजें लगी इस अक्षरण गतिको देखकर ही अमणतत्त्वज्ञों हुई है। परन्तु ऊपरवाला भाजन विलक्षण प्रकार ने "धर्म" द्रव्यकी और वैदिक ऋषियोंने "ऋत" का है। फलक १०३ टिकड़ा १८ में यह खड़ी और की धारणा की हैं । इसी तात्त्विक भावनाको साहित्य पड़ी घंटियोंमे बनी हुई एक चौकोर वस्तु है कारोंने धर्मचक्रकी संज्ञा दी है। और कलाकारोंने
और फलक १३, टिकड़ा २० मे यह अर्द्ध गोलाकार घुमनेवाली वस्तुओंसे इसका निर्देश किया है। उल्टे प्याले के समान है। ये दण्ड तो आज कल के घूमने वाली वस्तुओं में गाड़ोका पहिया सबसे सहज जमाने में जैन उत्सवोंके साथ जैन तीर्थंकरोंकी उदाहरण है, इसलिये शिल्पकारोंने मौर्यकाल और मृतियोंके आगे आगे चलनेवाले धर्मचक्रदण्डोंसे कुशानकालमे जहां तहां नाभि, नेमि और श्रारोंसे बहुत अधिक समानता रखते है। आजकल प्रयोग- युक्त गाडीके पहियेसे ही इस धर्मचक्रका प्रदर्शन में आनेवाले जैन धर्मचद कदण्डोंमे सिन्धुदेशके किया है। परन्तु उत्सवोंमे चलनेवाले दण्डाकार धर्मसमान ही अनेक झालरों, घटियों और झंडियोंसे चक्रको पहिये का रूप देने में शिल्पकारों को कठिनाई अलंकृत प्यालेके समान अधगोलाकार व थालीके पड़ती है। इसलिये उक्त उद्देश्यसे बनाये गए प्राचीन आकारवाले कितने ही चक्र थोड़े-थोड़े फासलेपर अथवा आधुनिक दण्डाकार धर्मचकोंमे पहिये के एक दूसरके उपर लगे हुए होते हैं।
बदले आमानीसे लग जानेवाले अर्द्ध गोलाकार
अथवा चाकके समान सपाट श्राकार वाले चक्र धर्मचक्र नियमबद्धगतिशील संसारका प्रतीक
लगाये गये है। यह आवश्यक विभिन्नता होते इतना विवरण दिये जाने पर पूछा जा सकता हुए भी मथुरा-कालीन स्तम्भोंपर स्थित, और है कि सिन्धुदेशकी दण्ड-कृतियोंमें मथुराकलाके मोहनजोदड़ो कालीन दण्डोंपर स्थित चक्रों में धर्मचक्रों जैसी कोई भी सदृशता न होने पर भी मौलिक समानता बनी हुई हैं और वह यह कि दोनों उन्हें धर्मचक्रकी संज्ञा क्यों दी गई है ? इसका में घूमने की गनिका प्रदर्शन है। श्रीजॉन मार्शलका यह उत्तर पाने के लिये हमें उस तात्त्विक भावनापर मत कि दण्डोंपर लगे हुए भाजन घूपघट हैं बिल्कुल विचार करना होगा जिसका कि प्रतीक धर्मचक्र है। निराधार है। मोहनजोदड़ोके दण्डाका र धर्मचक्रोंभारतीय श्रमण-तत्त्वज्ञोंकी यह एक सनातन धारणा को ध्यानपूर्वक देखनेसे प्रकट है कि दण्डोंपर लगे रही है कि यह संसार, जिसमे जीव अनादिकालसे हुए भाजन, वे किसी भी प्राकृतिक क्यों न हों, घूमने ८४ लाख विभिन्न पर्यायोंवाली योनियों में परि• वाले हैं और घूमने के भावके ही वे द्योतक है। घमने भ्रमण करता हा निरन्तर अपने वास्तविक हित- वाले भाजनोंको धूपघट की तरह उपयुक्त करना की तलाशमें घूम रहा है. स्वतः सिद्ध अनादिनिधन सामान्यबुद्धिसे बाहर है। दूसरे धूपघट आज भी है-आदि और अन्त रहित है। यह दिन और और प्राचीनकालमे भी देवालयों और मन्दिरोंमें