Book Title: Anekant 1949 Book 10 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 492
________________ किरण ११-१२] मोहनजोदड़ोकी कला और श्रमण-संस्कृति ४५१ नाओंसे विरक्त करके समतामें लय किया जाता है। अर्थात्-मोक्ष चाहनेवाले योगीको चहिए कि शेताश्व उपनिषद् में कहा है वह गम्भीर हो, स्तम्भ-समान निश्चलमूर्ति हो, बिरुन्नतं स्थाप्य समं शरीरं दीन्द्रियाणि मनसा निवेश्य पर्यवासनसे विराजमान हो, आँखें न अधिक खुली ब्रह्मोडुपेन प्रतरेत विद्वान् स्रोतांसि सर्वाणि भयावहानि ॥ हों न अधिक बन्द हों, ऊपरके दांत नीचे के दांतों अर्थात-छाती. ग्रीवो और शिर तीनों अङ्गोंको पर रक्खे हुए हों, समस्त इन्द्रियां वशीभूतहीं, सीधा ऊचा करके, शरीरको सम निश्चल बनाकर शास्त्रका पारगामी हो, मन्द मन्द चलते हुए श्वास और एकाग्रचिन्ताद्वारा इन्द्रियोंको हृदयमें सम्यक श्वाससहित हो, मनोवृत्ति नाभिके ऊपर, मस्तक रूप लय करके ज्ञानीको भय उत्पादक समस्त स्रोतों- हृदय, वा ललाट में स्थापित हो, ऐसा होकर उसे धर्म को आत्मध्यानकी नौकाद्वारा तर जाना चाहिए। और शुक्ल ध्यानोंकी आराधना करनी चाहिए। इसी प्रकार कण्ठोपनिषद में कहा है कायोत्सर्ग आसन जैनश्रमणोंकी विशेषता है-- तं योगमिति मन्यन्ते स्थिरमिन्द्रियधारणम् । इस स्थल पर यह बतला देना आवश्यक प्रतीत अप्रमत्तस्तदा भवति योगो हि प्रभवत्यसौ ॥६-११॥ होता है कि कायोत्सर्ग, जो मोहनजोदड़ोंके योगी जोवनका एक विशेष लक्षण है, जैन अर्हन्तोंकी ही अर्थात्-इंद्रियोंको स्थिर बनाकर रखना ही विशेषता है । जैन प्रन्थकारोंके अतिरिक्त अन्य योग है। जब मनमें संकल्प-विकल्प पैदा और प्रन्धकारोंने जहाँ कहीं भी अष्टाङ्गयोगका वर्णन विलय हाने बन्द हो जाते है तब अप्रमत्त प्रमादरहित) करते हए श्रासनके भेद-प्रभेदोंका विवरण दिया है। दशाकी प्राप्ति होती है। उसमे कायोत्सर्ग आसनका कोई उल्लेख नहीं है । इसीप्रकार भगवद्गीता ६, ११-१४ में कहा इसके विपरीत जैन आचार्योन स्थल-स्थल पर जैनगया है कि योगीको कमरके ऊपरका घड़, गर्दन, मनि आचार का वर्णन करते हुए उनके ध्यानके लिए और मस्तक एक सीधमे अचल रखकर इधर-उधर पद्मासन और कायोत्सर्ग श्रासनपर विशेष जोर दिया न देखता हुआ नासिकाके अग्रभागपर अपनी दृष्टि ष्टि है। उसके कुछ नमूने यहां उद्धृत किये जाते हैं:जमाकर ध्यान करना चाहिए। (अ) धीर वीर पुरुष समाधिकी सिद्धिके आदिपुराण (जैनपुराण ) पर्व २७ में, ध्यान लिए काष्टके तखतेपर तथा शिलापर अथवा भूमिध्याता-ध्येय-सम्बन्धी विस्तृत विवेचन देते हुए, श्री पर वा बालू रेतके स्थान में भले प्रकार स्थिर श्रासन जिनमेन आचार्य न २१-६२ मे, ध्यानीकी आँखोंकी करे। ये श्रासन कितने ही प्रकार है-पर्यत हालत के लिए कहा है - श्रासन, अधपयेक आसन, वासन, वीरासन, 'नात्युन्मिषन् न चात्यन्तं निमिषन्' सुखासन, कमलासन, कायोत्सर्गश्रामन, ये सब अर्थात-ध्यानीकी भांखें न तो बिल्कुल खुली आसन ध्यानके योग्य माने गये हैं। जिस जिस ही होनी चाहिएँ और न बिल्कुल बन्द ही। आसनसे सुखरूप उपविष्ट मुनि अपने मनको इसीतरह हरिवंशपुराण (जैनपुराण) पर्व ५६ में निश्चल कर सके वही सुन्दर श्रासन मुनियाको कहा गया है ग्रहण करना चाहिए तथा इस समय-काल दोषसे गम्भीरः स्तम्भमूर्तिः सन् पर्यङ्कासनबन्धनः । जीवोंके सामर्थ्य की हीनता है, इस कारण कई नास्युन्मीजनिमीलश्च दत्तदंत्तापदन्तकः ॥३२।। आचार्योने पर्यकासन (पद्मासन) और कायोत्सर्ग निवृत्त करणग्रामव्यापारः श्रतपारगः। मंद मंदं प्रवृत्तान्तः प्राणापानादिसंघरः॥३३॥ देखें, पातम्जन यागदर्शन, महर्षि वेदव्यास-कृत नाभेरूद्धर्व मनोवृत्ति मूर्ध्नि चाहदि बालके । भाष्य और विज्ञानभि-कृत वार्तिक-सहित, साधनपाद मुमुचुः प्राणिधायासं ध्यायेद् ध्यानद्वषं हितम् ||३॥ सूत्र ४६।

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