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किरण ११-१२] मोहनजोदडोकी कला और श्रमण-संस्कृति
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----- - परन्तु उपर्युक्त अनुभूतिके अनुसार यह संकेत लोक सात नरकोंवाला अधोलोक स्थित है। इसकी नाभिख्याति-प्राप्त बाहूबलीको ओर ही मालूम होता है। में मेरु पर्वत है। इसके कटितट-भागमें जम्बूद्वीप
जैनसंस्कृतिकी मान्यता अनुसार कायोत्सर्ग- आदि अनेक द्वीप-समुद्रोंवाला मध्यलोक स्थित है। पासनकी जो महिमा, उसके जो आदर्श और उद्देश्य इसकी नाभिसे ऊपर और कन्धोंसे नीचेवाले ईस्वी काल की दूसरी सदीके जैन आचार्य वट्टकेरने मध्यभागमें १४ स्वर्गलोक स्थित हैं, कन्धों में ऊपर बयान किए हैं, जैन साधुओंके कायोत्सर्गका आरण,अच्युत नामके दो स्वर्ग स्थित हैं, ग्रीवामें नव वही वर्णन बुद्ध भगवानने मज्झिमनिकायके १४वें प्रवेयिक, ठोडोमें पञ्चअनुदिश, चेहरेमें पञ्च सुत्तमें दिया है।
अनुत्तरस्वर्ग स्थित हैं और सर्वोच्च ललाट-भागमें उपयुक्त मान्यता कारण कायोत्सर्ग आसनकी सिद्धलोक स्थित है। प्रथा आजकल भी ज्योंकी त्यों जैनियों में प्रचलित श्रमणोंकी जो मान्यता ऊपर जैन हरिवंश है। प्रतिक्रमण और सामायिक के समय आज भी पुराणसे उद्धृत की गई है वही मान्यता भागवत जैन त्यागी और श्रावक लोग प्रायः कायोत्सर्ग पुगण में दी हुई है। आसनसे ही खड़े होकर ध्यान लगाते हैं।
विद्वान पुरुप विराट् पुरुषके अङ्गों में ही समस्त उक्त प्रकार के सभी प्रमाणोंको ध्यान में लेकर लोक और उसमे रहनेवाली वस्तुओं की कल्पना करते श्री वी. सी. भट्टाचार्य M.A. ने तथा श्री रामप्रसाद हैं। उसकी कमरसे नीचेके अङ्गोंमे सातों पाताल है, चन्दाने यही मत निर्धारित किया है कि कायोत्सर्ग उससे ऊपर के अङ्गों में सातों स्वर्ग हैं, पैरोंसे लेकर श्रामन जैनधर्मकी ही विशेषता है।
कटि पर्यन्त सातों पाताल और भूलोककी कल्पनाकायोत्सर्ग आसनका तात्त्विक आधार- की गई है। नाभिमें भुव लोककी, हृदयमे स्वर्ग लोक इस स्थल पर यह बतला देना भी जरूरी है कि
की, वक्षस्थलमे महः लोककी, दोनों स्तनोंमे तपलोक इन श्रमणोंने कायोत्सर्ग आसनको जो अपनी ध्यान
की, गले में जललोककी, और मस्तकमें ब्रह्माके नित्य साधनाके लिए विशेषतया अपनाया है उसका एक
स्थान सत्यलोककी कल्पना की गई है। विशेष कारण है और वह है उनकी एक प्राचीन
वैदिक साहित्य के अध्ययनसे पता लगता है कि तात्त्विक धारणा। इरा धारणाके अनुसार यह
अधिकांश वैदिक ऋषियोंको भी लोक-सम्बन्धी उपलोक आदि-अन्त रहित, अनादि-निधन) स्वतः सिद्ध युक्त मान्यत अकृत्रिम है, जीव-जीव द्रव्योंसे भरपूर है और
"अन्तरितोदरः कोशो भूमि बुध्नो न जीर्यति दिशो ह्यस्य पुरुषाकार है। अधः मध्य और ऊर्ध्व लोकोंकी सक्स्यो चोरस्योत्तरं बिजम्; स एष कोपो षसुधानः । अपेक्षा अथवा भूः भुवः स्वः की अपेक्षा यह तीन
को
तस्मिन् विश्वमिदं श्रितम् ।" प्रकारका है।
-छान्दोग्य उप० ३, १५-१ ____ इस अपौरपेय पुरुषाकार लोककी उरु-जंघामें अर्थात् - वह कोष (शरीरलोक) जिसका १. इसके लिए देखें इसी लेखका अन्तिम भाग।
उदर अन्तरिक्ष है, चरण भूमि है, द्यौ उत्तर बिल २. (A) The India Iconography By BC. (शिर) है, दिशाएं कान है-कभी जीर्ण नहीं होता. ___Bhattacharya M. A, 1939P. 185. वह वसुनिधि है (अथोत्-वह अग्नि, पृथ्वी. (B) The Modern Review 1932- वायु, अन्तरिक्ष, धौ, श्रादित्य, चन्द्रमा और नक्षत्र
Sindh five thousand years ago.
pp. 150, by Ramprasad chanda. .. (जनी) हरिवंशपुराण ५, २६-३२ ३. तिलोयपण्यात्ती ०,१३३-११८, त्रिलोकसार ३-६। २. भागवतपुराण, स्कन्ध २, अध्याय १,३२-१२