Book Title: Anekant 1949 Book 10 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 493
________________ ४५२ अनेकान्त [वर्ष १० ये दो ही आसन प्रशस्त कहे हैं। तप किया कि भूमिमे उग उगकर जंगलकी लताएँ (आ) जिसका मन चंचल है, वह कैसे इसके शरीरपर चढ़ गई, सांपों और दीमकोंने ध्यानस्थ हो सकता है। इसलिए ध्यानके लिए इसके पदस्थल में अपनी बम्बियां बना लीं, जंगलके कायोत्सर्ग और पर्यङ्कासन, जो सुखासन हैं मृग उसे निर्जीव ठूठ जानकर इसके शरीर से अपना वाञ्छनीय हैं। अन्य श्रासन ध्यानके लिए शरीर खुजलाने लगे। इनके तपके प्रभावसे इनके विषम होनेसे आश्रय लेने योग्य नहीं हैं। निकटमे रहनेवाले सिंह, बाघ, चीता, रोछ, आदि (इ) जिसमें दोनों भुजाएँ लम्बी की गई हो, कर जन्तु भी करताको छोड़कर सौम्य हो गये । चार अंगुलके अन्तरसे पांव स्थित हों, सब जब इस प्रकार योग साधन करते हए एक वर्ष अङ्गोपाङ्ग निश्चल हों वह शुद्ध कायोत्सर्ग है पूरा होनपर पाया परन्तु उन्हें कैवल्य प्राप्त न हुआ ॥६५॥ कायोत्सर्ग मोक्षमार्गका उपकारी है। तब भरत चक्रवर्ती और देबोंने उनके पास आकर घातिया कर्मोका नाशक है. मैं उसको स्वीकार प्रार्थना की कि भगवन् 'प्रसन्न हजिये, शल्यको दर करना चाहता हूँ। क्योंकि जिन भगवानने इसका कीजिये और इस घोर साधनाको समाप्त कीजिये। सेवन किया है, और उसका उपदेश किया है इसपर बाहुबलि निःशल्य हो, कैवल्य पदको प्राप्त ॥ ६५२ ॥ कषायोंके कारण जो त्रिगप्तिमें हुए। देवोंने उनकी पूजा की और उनके बैठने के उल्लंघन हाहो, व्रतोंमें जो अतीचार हा लिये गन्ध कुटी बनाई। हो, पटकायके जीवोंकी अविराधनामे जो अपनी इस दीर्घ और कठोर तपस्याके कारण अतिचार हुआ हो, सात प्रकारके भय और बाहुबली सदाके लिये तपस्वियोंके वास्ते एक आदर्श आठ प्रकारके मदोंके कारण जो अतिचार हा बन गये । यह उनकी इस महिमाका ही फल है हो, ब्रह्मचर्यमें जो अतिचार लगा हो; इन समस्त कि तीर्थङ्कर न होते हुए भी जैनसाहित्य उनकी दोषोंके नाशके लिए मैं कायोत्सर्ग आसनका गौरव-गाथाओंसे और जैन प्रस्तर-कला उनकी आश्रय लेता हूँ ॥ ६५३, ६५४ ॥ जो कुछ देव- मूर्तियों से भरपूर है।। मनुष्य-तिर्यच कृत व अचेतनकृत उपसर्ग हैं, उन्हें अथर्ववेदके व्रात्यकाएड १५-१ (३) में एक मैं कायोत्सर्गमे स्थित हुधा सहन करता व्रात्यकी विस्मयकारी तपस्याके सम्बन्धमे यह कायोत्सर्ग एक वर्षका उत्कृष्ट और अन्तमुहूर्त उल्लेख मिलता है "स सवत्सरमूव तिष्ठतेत देवा अब वन् व्रात्य का जघन्य होता है।॥ ६५६॥ कि नु तिष्ठसीति ॥१॥ सोऽववीदासन्दी मे संभरनिस्वति उक्त विवेचन में जो एक सालके उत्कृष्ट कायो- ॥२॥ तस्मै व्रात्यायासन्दी समभरत ॥३॥".... " त्सर्गका जिक्र किया गया है उसका संकेत स्पष्टतया अथोन-वह वर्ष भर तक सीधा खड़ा रहा, उस महातपस्वी बाहुबलीकी भोर है जो आदिब्रह्मा तब देवनि कहा-व्रात्य ! तू क्यों खड़ा है। वह ऋषभ भगवानका पुत्र और आदिचक्रवर्ती भरत, बोला मेरे लिये आसन्दी (बैठनकी चौकी) ले आओ, जिसके नामपर हमारा देश आजतक 'भारत' वे उस व्रात्य के लिये प्रासन्दी ले आये। कहलाता है, का छोटा भाई था। जैन अनुभति ति- इसका संकेत, जैसा कि श्री रामप्रसाद चन्दाने के अनुसार इसने एक साल तक एक स्थानमें कहा है', स्पष्टतया एक जैन श्रमणकी ओर तो है ही. कायोत्सर्ग आसनसे सीधे खड़ा रहकर ऐसा घोराटि B. लोक .. १ ज्ञानर्णव -श्रीशुभचन्द्राचार्य कृत, २८-६-१२ । २. Ramprasad chanda-Memoris of २ श्रादिपुराण-श्रीजिनसेनाचार्यकृत, २१.७१। the Archeclogical Survey of India, No. ३ मूलाचार-श्रीबहकेर प्राचार्यकृत, ६१०.६५६। 41-1929, P.31.

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