Book Title: Anekant 1949 Book 10 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 491
________________ ४५० अनेकान्त [ वर्ष १० ओर झुके हों, पन्नासनके ऊपर वैठे हों, और ऐसी अथ बिम्ब जिनेन्द्रस्य कर्तव्य जपणान्वितम् । बुद्ध प्रतिमा हो, मानों जगतका साक्षात् पिता है।' ऋज्वायतसुसस्थानं तरुणाम दिगम्बरम् ॥ श्रीवत्सभूषितोरस्कं जानुप्राप्तकराग्रजम् । जैनमूर्तियोंसे तुलना निजांगुलिप्रमाणेन साष्टांगुल............ ॥ इस तरह बुद्धमूर्तियों के लक्षण भी मोहनजोदड़ो कहादिरोमहीनांश श्मश्रशेषविर्जितम् । वाली कायोत्सर्ग मूर्तियोंसे मेल नहीं खाते। केवल अर्धप्रलम्बकं दत्वा समाप्येत च धारयेत् ॥ जैन अर्हन्तोंकी मूर्तियां ही ऐसी हैं-चाहे वे आधु जैन अनुश्रुतिकेअनुसार वर्तमान २५ तीर्थक्करोंमेंनिक कालकी हों या मध्यकालवी, गुप्तकालीन हों से ऋषभदेव, नेमिनाथ और महावीरको छोड़कर या कुशानकालकी अथवा मौर्य कालवर्ती-जो मोहन शेष २१ तीर्थङ्करोंने कायोत्सर्ग आसनसे ही निर्वाण जोदडोवाली मूर्तियोंके लक्षणोंमे पूर्ण समानता प्राप्त किया है। रखती हैं। __ मौर्य-कालीन, कुषान-कालीन, और पश्चात्का___ इसके अतिरिक्त भारतीय साहित्य में जहाँ कहीं लीन हजारों कायोत्सर्ग जैन मूर्तियों के अतिरिक्त अन्तिमूतियोंका वर्णन भाया है वह मोहनजोदड़ो ऐतिहासिक युगकी गोम्मटेश्वर (बाहुबलि ) संबंधी वाली उक्त मूर्तियोंके ही अनुरूप है ।श्री वराहमिहिर । जैनकलाकी लोकप्रसिद्ध मूर्तियां भी मैसूर और ने वृहत्संहितामें कहा है : हैदराबाद रियामतोंमें, श्रवणवेलगोल, कारकल, अाजानुलम्बबाहुः श्रीवरसः प्रशान्तमूर्तिश्च । वेणूर आदि स्थानों में पहाड़ी चट्टानोंको काटकर दिग्बासस्तरुणो रूपवांश्च कार्योऽईतां देव ॥१८-४॥ ५६, ४२ अथवा ८२ फुट ऊंची बनी हुई है, वे सब अर्थात्-जानु तक लम्बी भुजाओंसे युक्त, श्री. मोहनजोदड़ोके समान हैं। ग्वालियर किलेकी ५६ फुट वत्स-चिह्नसे सुशोभित, शान्तस्वरूप, दिगम्बर, तरुण ऋषभनाथकी प्रतिमा, इन्दौरके निकट बडऔर उत्तमरूपसहित अन्तिदेवकी प्रतिमा बनावे। वानीकी ऋषभनाथ भगवान्की ८४ फुट ऊंची जैनसाहित्यमें भी जहां कहीं अर्हन्त-मूर्तियों के प्रतिमा और टीकमगढ़ रियासतमें अहार क्षेत्रकी १८ वन मिलने से भी उपक मतको फुट ऊंची भगवान शान्तिनाथकी और ११ फुट करते है । यथाः ऊंची भगवान् कुन्थुनाथको मूर्तियां भी कायोत्सर्ग शान्तं नाशाग्रष्टि विमल गुणगणेभ्राजमान प्रशस्तं मुद्रावाली हैं। इनमेंसे श्रवणवेलगोलवाली मूर्ति मानोन्मानं च वामे विकृतवरकरं नामपद्मासनस्थम । गगवंशी राजा राचमल्लके मन्त्री श्रीचामुण्डराय ब्युस्सगोलविपाणिस्थलिनहितपदाम्भोजमानम्रकम्बुम् द्वारा ह८३ ई० के लगभग निर्मित हुई है और अहार ध्यानारुटं विदैन्यं भजत मुनिजनानन्दकं जेनबिम्बम् ॥७०॥ क्षेत्रकी मर्तियां वि० सं० १२३७ मे उत्कीर्ण हुई है। -श्रीजयमेनाचार्य-कृत प्रतिष्ठापाठ अर्थात्-शान्तमुद्राधारी, नासाग्रदृष्टि, विमल ध्यान, योग ओर आसनकी पुरानी सभ्यतागुणोंसे शोभायमान, मानोन्मानसे प्रशस्त, बायें हाथ- भारतके योगीजन सदासे अपनी मानसिक एकापर दायां हाय धारण किए हुए पद्मासनमें स्थित, प्रता, चिन्तानिरोध और योग-समाधिके लिए विविध अथवा कायोत्सर्ग में स्थित दोनों हाथ सीधे जानुओं प्रकार के आसनोंका आश्रय लेते रहे हैं। बिना योगतक लटके हुए और दोनों चरण किश्चित् अन्तरसे आसन ग्रहण किये ध्यान नहीं लग सकता, इसभूमिपर टिकेहुए, प्रीवा किञ्चित् झुकी हुई, ध्याना- लिए भारतके शिष्टजन श्रासनको सदा उपासनाका रूढ, दीनतारहित मुनिजनोंको आनन्द देनेवाली एक जरूरी अंग मानते रहे हैं। इन आसनोंमें वे ऐसी जैन मूर्ति भजनी चाहिए। ___ चाहे बैठेयोग हों या खड़ेयोग, शरीरको स्थिर और इमीप्रकार वसुनन्दिप्रतिष्ठासंग्रहमें कहा गया है- सीधा रक्खा जाता है और इन्द्रियोंको विषयबास

Loading...

Page Navigation
1 ... 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508