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अनेकान्त
[बर्ष १०
हए है-प्रायः साग संसार इसी भूल के चक्कर में से पदार्थ-पाठ लेकर आत्महितकी साधनामे पड़ा हुआ है । एक मनुष्य दूसरेके मरणकी तो अधिक सावधान होना, यह उससे भी ऊपर तथा चिन्ता करता है, उसपर शोक प्रस्ताव पाम करता अधिक आवश्यक है ।। है परन्तु अपना मरण जो निकट आ रहा है, उसका बिन्दका जी अपने मरणके पीछे जो पदाथेपाठ तरफ कोई ध्यान नहीं देता ! यही बजह है कि मनुष्य छोड़ गये है वह संक्षेपमें इस प्रकार है:की आत्म-हितकी ओर प्रवृत्ति प्रायः नहीं हो पाती।
किसीको भी अपनी जवानी, तन्दुरुस्ती, वह उसे भूले रहता है,अथवा उसके लिये समयादिकी बाट जोहता रहता है और इस बातको भल शक्ति और सम्पत्ति के ऊपर भले नहीं रहना चाहिए. जाता है कि कालकी दृष्टि में बच्चा, बढा और उनक गिरत दर नहीं लगती और मौत के वक्त उनमें जवान अथवा रोगी-नीरोगी, निर्बल और बलबान से कोई भी चीज काम नहीं पाती। सब समान है-वह विना किसी भेद भाव के सभी (२) समाज सेवाके कार्यों में बराबर तत्परताके को अपना ग्रास बना लेता है। मनुष्य अपनी इस
साथ भाग लेना चाहिए, जिससे समाज तथा देशके भूल को यदि समझे और मरण घटनाओंसे पदाथ प्रति अपना कर्तव्य पूरा हो और बादको गौरवके लेकर अपने आत्माका भी कुछ हित साधन करने
साथ नाम लिया जासके। में प्रवृत्ति करें तो संसारका बहुत बड़ा कल्याण हो सकता है। खिन्दुकाजीको पहलेसे यदि यह (३) दूसरोंके कामोमें इतना अधिक संलग्न न मालम होता कि उनका मरण १३ जुलाईको होने- रहना चाहिए, जिससे आत्महित गौण हो जाए, वाला है तो इसमें सन्देह नहीं कि वे एसे पुरुषार्थी थे उसे भुला दिया जाय अथवा अवसर ही न दिया कि अपने आत्महितकी साधनाका प्रयत्न जरूर
जाय। दूसरोंकी सेवा करते हए आत्म-सेवाका भी करते । परन्तु अपनी मौतका हाल पहलेसे तो किसी
ध्यान रखना चाहिए-आत्माको अधिकाधिकरूपमे को भी प्रायः मालम होना नहीं है, तब श्रेयस्कर पहिचाननेका यत्न करत हुए राग, द्वेष काम क्रोधयही है कि हम अपने नित्यके जीवन में खाने-पीने मान-माया-लोभादिक शत्रओं के उपद्रवसं उस
आदिके समान आत्महित (धर्म) की भी नियमित बचाना चाहिये । और मौतसे कभी गाफिल नही रूपसे साधना करते रहें-उसे अनिश्चित भविष्य रहना चाहिये, वह जब चाहे आ सकती है, उसके के ऊपर न छोड़े रक्खं, जिससे अन्त समयमे पश्चा.
स्वागतके लिए सदा तय्यार रहना चाहिये । अन्यथा त्तापके लिए कोई अवसर न रहे और हम मौत पछताना होगा-मौत के समय कुछ भी नहीं बन का पैगाम आते ही अपनेको तैय्यार पाएँ । किसी भी समाज-संवक के निधन पर शोक-सभाओंका अन्तमे विन्दुकाजीके पुत्रों और अन्य कुटुम्बोलक्ष्य केवल शोक प्रकाशित करके एक रुढिका
जनके इस वियोगजन्य दुःखमें समवेदना व्यक्त पालन करना ही न होना चाहिये, बल्कि उपकारीके उपकारोंका स्मरण करते हुए उसके प्रति अपना जो
करता हुआ मैं आशा करता हूं कि वे विन्दुकाजीके
पद-चिन्होंपर चलते हुए उन्हें भुला देगे और कर्तव्य है तथा उसके स्थानकी पूर्ति के लिए-समाज
अपने जीवनको अधिक सावधान एवं सतर्क रखनेमें वैसा ही सेवक उत्पन्न करने के वास्ते-समाज
में समर्थ होंगे। का जो उत्तरदायित्व है उसे परा करने के लिए गहरे विचार के साथ कोई ठोस कदम उठाना चाहिये। साथ ही, आत्म-निरीक्षण करना तथा मरण-घटना