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किरण ११-१.] सम्पादकीय
४५६ २. अनेकान्तकी वर्षे-समाप्ति और अगला वर्ष- प्रयत्नसे १०० और दूसरे विद्वानने २०० नये ग्राहक ___ इस संयुक्त किरण(५१-५०)के साथ अनेकान्तका
बनानेका दृढ़ संकल्प करके प्रोत्साहित किया । १०वाँ वर्ष समाप्तहो रहा है। इस बर्पमे अनेकान्त उधर गुण-ग्राहक प्रेमी पाठकोंसे यह आशा की गई पाठकोंकी कितनी सेवा की, कितने महत्वके लेख
कि वे अनेकान्तको अनेक मागोंसे सहायता भेजकर प्रस्तुत किए, कितनी नई खोजें सामने रक्खीं, क्या तथा भिजवाकर उसी प्रकारसे अपना हादिक सहकुछ विचार जागृति उत्पन्न की. और समाजके राग- सहयोग प्रदान करेंगे जिस प्रकार कि वे अनेकान्तके द्वेषसे कितना अलग रहकर यह ठोस संवा-कार्य थे, ५वें वर्षोमे करते रहे हैं और जिन वर्षोंमें करता रहा, इन सब बातोंके बतलातेकी यहां जरू. अनेशन्तको घाटा न रहकर कछ बचत ही रही थी। रत नहीं-नित्य पाठक उनसे भली भॉति परि- इन सब बातोंके भरोसेपर और इन्हें भी उक्त चित है और जो परिचत न हों वे वार्षिक विषय- सम्पादकीयमे व्यक्त करते हुए १०वें वर्ष का प्रारम्भ सची आदिको देखकर उसका क्तिना ही आभास किया गया था। साथ हो, डा. वासुदेवशरणजी प्राप्त कर सकते है । परन्तु इस वर्षकी कुछ किरणें अग्रवाल के इस सुन्दर कथनको भी दिया गया था, समय पर नहीं निकल सकी और यह संयुक्त कि देवमूर्ति तथा देवालय के निर्माण तथा प्रतिष्ठादि किरण दो महीने के विलम्ब प्रकाशित हो रही है, कार्योंमे जिस प्रकार आर्थिक दृष्टिको लक्ष्य में नहीं इसका मुझे खेद है। इसकी अधिकांश जिम्मेदारी रक्खा जाता-अर्थोपार्जन उसका ध्येय नहीं होताअकलक प्रेमके ऊपर है जिसने पत्रको लेते समय उसी प्रकार सरस्वतीदेवीकी मूति जो साहित्य है उसको ममयपर छापकर देनका पुख्ता वादा किया उसके निर्माणादि कार्योंमे भी आर्थिक दृष्टिकोलक्ष्य में था और जो प्रत्येक किरणको एक सप्ताहमे छापकर नहीं रखना चाहिए। प्रयोजन यह कि अनेकान्तको देनेके लिए वचनबद्ध हुआ था, परन्तु उसने एक शद्ध साहित्यिक तथा ऐतिहासिक पत्र बनाना किरणके साथ भी अपना वचन पूग नहीं किया चाहिए और उसमें महत्वके प्राचीन ग्रन्थों को भी और पिछली किरणोंक साथ तो बहुत ही लापवाही. प्रकाशित करते रहना चाहिए। जैन समाजमें साहिका बताव किया है, जिससे मै भी तंग आगया। त्यिक मचि कम होनेसे यदि पत्रकी ग्राहकसंख्या ऐसी स्थितिम पाठकोंको जो प्रतीक्षा-जन्य कष्ट उठाना कम रहे और उससं घाटा उठाना पड़े तो उसकी पड़ा है उसके लिये मै उनसे क्षमा चाहता हूं चिन्ता न करनी चाहिए-वह घाटा उन सज्जनोंके
पिछले वर्षके घाटेको देखते हए, जिस माह द्वारा पूरा होना चाहिए जो सरस्वती अथवा जिनशान्तिप्रसादजी अथवा उनकी संस्था भारतीय वाणा माताकी पूजा-उपासना किया करते है और ज्ञानपीठ काशीने उठाया था, मुझ इस वर्ष पत्रको
देव-गुरु-सरस्वतीको समान दृष्टिस देखत हैं । ऐसा निकालने का साहस नहीं होता था, चनाँचे वषारम्भ
होनेपर जनसमाजमें साहित्यिक रुचि भी वृद्धिको के “सम्पादकीय'मे मैने उसे व्यक्त भी कर दिया था
प्राप्त होगी, जिससे पत्रको फिर घाटा नहीं रहेगा परन्तु अनेक मज्जनोंका यह अनरोध हा कि और लोकका जो अनन्त उपकार होगा उसका मूल्य अनेकान्तको बन्द नहीं करना चाहिए, क्योंकि इसके
नहीं आंका जा सकता-स्थायी माहित्यसे होने द्वारा कितने ही महत्वके साहित्यका गहरी छान. वाला लाभ दवत्तियों आदिसे होने वाले लाभसे बीनके साथ नव-निमोण और प्राचीन साहित्यका कुछ भी कम नहीं है। और इसपर जैनसमाजको सम्पादन होकर प्रकाशन होता है, जो बन्द होनपर खास तौरसे ध्यान देकर अनेकान्त की सहायतामे रुक जायगा और उससे समाजको भारी हानि सविशेषरूपसे सावधान होने की प्रेरणा भी की गई पहुँचेगी। इधर वीरसेवामंदिरके एक विद्वानने निजी थी, जिसमें अनेकान्त घाटेकी चिन्तासे मुक्त रहकर