________________
किरण ११-१२ ] मोहनजोदड़ोकी कला और श्रमण-संस्कृति
४४४ वृषका चिह्न, ललाट में तीसरा नेत्र, एक हाथमे और दुर्धर ध्यान-साधनावाले मार्गका भी विरोध त्रिशूल, दूसरे हाथमें पिनाक नामक धनुष, वामअर्ध किया है। इस तरह चर्या की दृष्टिसे यह अतिशयभागमें पार्वतीका वाम अर्ध भाग होता है।
युक्त प्रवृत्ति और निवृत्तिवाले मार्गोंके बीचका एक इसमें सन्देह नहीं, कि शिवकी उक्त प्रतिमाएँ माध्यमिक मार्ग है। इस संस्कृतिका प्रवर्तन आजअनेक तात्त्विक और आध्यात्मिक भावनाओंको से ढाई हजार वर्ष पूर्व भगवान बुद्ध के द्वारा हुआ दर्शानेवाली और कविताके समान कनापूर्ण हैं; परन्तु है। भगवान बुद्धने इस संस्कृतिके प्रवर्तनमें अपनेइस स्थानपर शिव-प्रतिमाओंको उक्त विवक्षापर से पूर्ववर्ती किसी महापुरुषको अपना आदर्श नहीं विचार करना हमारे लिये अनावश्यक है। इस बताया । जैसा कि उन्होंने कहा है कि 'वे इसके एक स्थलपर हमें केवल यही देखना है कि यह मोहन- स्वतंत्र प्रवर्तक है। इसलिये मोहनजोदडोके युगमें जोदड़ो और मथुराकी कायोत्सर्ग-प्रतिमाओंकी शैली- बौद्ध संस्कृतिके चिह्न ढूढ़ना एक निरर्थक परिश्रम है । का अनुसरण नहीं करती और न उनकी तरह ऐति- इसके अतिरिक्त भगवान बुद्ध की सभी मूर्तियां हासिक योगी पुरुषोंकी वास्तविक प्रतिमाएँ ही हैं। परिधान-सहित हैं। वे कुछ भूमिस्पर्श मुद्राधारी हैं,
वास्तव में योगियोंकी अलंकारिक (Symbohc) परन्तु अधिकांश अभय-मुद्रा धारी हैं। भूमिसर्शमर्तियाँ बनाने की कलाका विकास प्राचीन भारतमें मुद्रामें बुद्धदेव पद्मासन बैठे रहते है, और उनका नहीं हुआ था। यह शैली ऐतिहासिक युगकी ही दाहिना हाथ नीचे की ओर लटकता रहता है। हाथकी सृष्टि है। Mohenjodaro Vol-I, Plate 12 : 17 हथेली भी भूमिकी ओर खुली होती है। अभयमुद्राकी मूर्ति जिसको Sir John Maishal ने शिवकी में अभय प्रदान करती हुई दाहिने हाथवी अंगुलियाँ प्रारंभिक मति बतलाई है वह भी उक्त प्रकारकी ऊपरकी ओर सीधी खड़ी रहती हैं। और हथेली शिवमूर्तियोंसे भिन्न शैलीकी है। वह त्रिनेत्रीकी बाहरकी ओर दिखाई देती है । भगवान बुद्ध की कुछ बजाय त्रिमुखी है। उसमे त्रिशूल हाथमें न होकर मूर्तियां व्याख्यान-मुद्रामे भी पाई जाती हैं। इनमें शिरपर अङ्कित है। उसमे छाती और हाथोंपर बुद्ध भगवान् शिक्षा देते हुए दिखलाए गए हैं। उनमें सर्प न होकर आभूषण अङ्कित है।
मूर्ति पद्मासन लगाए बैठी रहती है, दाहिने हाथकी ___ इन सब बातोंसे सिद्ध है कि मोहनजोदडोकी तर्जनी अंगूठेको छूती हुई बनाई जाती है, जिससे कायोत्सर्ग-मूर्तियाँ शैव मूर्तियाँ नहीं हैं।
एक वृत्त-सा बन जाता है। बुद्ध भगवानकी इस बौद्धमूर्तियोंसे तुलना
प्रकार व्याख्यान करनेवाली मर्तिया उनके धर्मचक्र
प्रवर्तनार्थ सारनाथमें पांच भिक्षोंको बौद्ध धर्मका जहाँ तक बौद्ध संस्कृतिका सबाल है, इसमें सन्देह
उपदेश व्यक्त करने के भावको लिये हुए है । वर-मुद्रानहीं कि, वह प्राचीन श्रमणसंस्कृतिके मूलमसे ही फूटी में भगवान बुद्ध खड़ेयोग आशीष या वर देते हुए हुई एक शाखा है। सांसारिक जीवन दुखमय है, दिखलाए गए हैं । अवास्तविक है, हेय है। इस तात्त्विक भावनामेंसे - वराहमिहिर ने भी अपनी संहिता (अ० ५८) में ही इसका जन्म हुआ है। इच्छा प्रोंके त्यागको ही मूर्तियों के लक्षण देते हुए बुद्धमूर्तिका जो लक्षण दिया बुद्धने दुःख-निवृत्तिका मार्ग बतलाया है; परन्तु इस है उसमें बतलाया है किदुःखनिवृत्ति के लिये उसने जहां विषय-वासना और 'बुद्ध भगवान्की प्रतिमाके हाथ, पैर, कमल रेखाभोग-विलासवाले लौकिक मार्गका तथा देवता मानकरी वादियोंके याज्ञिक क्रियाकाण्डी मागेका विरोध 1. श्री वासुदेव उपाध्याय M. A. 'भारतीय प्रस्तरकता किया है, वहां उसने श्रमणोंके लिष्ट कायक्लेश और योग'-कल्याणका योगाङ्क' १९३५,१०७३४-७३६,