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किरण ११-१२] मोहनजोदडोकी कला और श्रमण-संस्कृति
४३७ भगवान् अपनी लम्बी लम्बी जटाओंके जालसे घिरे (अ) Ibad Mohenjodaro-जिल्द १, हुए शोभायमान हैं।
फलक १२, टिकड़े १३, १८, २२ में मूर्तियों के शिरोंचौथी ईस्वी शताब्दीके जैन ज्योतिषज्ञ यति. पर यह त्रिशूल बने हैं। वृषभने भी अपने प्रन्थ 'तिलोयपणत्ती'के ४थे अधि. (आ) The Jaina Stupa and other कारमें गंगोत्री आदि के निकट कहीं हिमाचल प्रदेशमें Antiquities of Mathura By V.A. Smith, स्थित आदिजिनेन्द्रकी मूर्तिका उल्लेख करते हुए 1901कहा है :
____ फलक ६-इसके बीचके भागमें कमलसे श्राधाश्रादिजिणप्पडिमायो तायो जड-म उढमेहरिलायो। रित एक सुन्दर त्रिशूल बना हुआ है, जिसपर पढिमोवरिम्मि गंगा अभिसित्तमणा व सा पडदि ॥२३॥ धर्मचक्र रक्खा हुआ है। इस त्रिशूल और धर्मचक्र
अर्थात-वे आदिजिनेन्द्रकी प्रतिमाएँ जटा- की ओर तीन स्त्रियां और एक बालिका हाथों में मुकटरूप शेखरसे सहित हैं। इन प्रतिमाओंके कमल लिये उपासिकाके रूपमें खड़ी हैं। इनसे ऊपर वह गंगानदी मानों मनमें 'अभिषेककी भाव. दायीं ओर एक वृहत्काय सिंहकी आकृति बनी नाको रखकर ही गिरती है।
है, जो स्पष्टतया भगवान महावीरका चिन्ह है। आज भी भारतके बहुतसे जैन मन्दिरोंमें ऋषभ फलक ७, ९, १० और ११ में केन्द्रीय पद्मासन भगवान्की प्राचीन मूर्तियाँ जटाधारी रूपमें मौजूद अर्हन्तदेवकी मूर्ति के चारों ओर बहुत ही सुन्दर है। इसके लिये राजगृहीकी प्राचीन ऋषभ भग. और अलकृत चार चार त्रिशूल बने हुए हैं। वानकी मूर्ति, जिसका फोटो बनारससे प्रकाशित (इ) वही, मथुरा संग्रहालयका सूचीपत्रहोने वाली मासिक पत्रिका 'ज्ञानोदय' जुलाई जैन मूर्ति नं० B. ५-हस मूर्तिके श्रासनपर १६४६ मे छपा है, दर्शनीय है।
त्रिशूल बना हुआ। है, जिसपर धर्मचक्र रक्खा हुआ ____ हिन्दुओंके भागवत पुराण स्कंध ५,अध्याय २-६ है। इस मूर्तिकी छह श्रमण एक ही पंक्तिमें खड़े मे भी इसी ऋषभ भगवानका बहुत सुन्दर सविस्तर वन्दना कर रहे हैं। वर्णन दिया गया है, उस वर्णनके अनुसार भी श्री जॉ। मार्शलने मिन्धुदेशकी इन आकृतियोंके भगवान ऋषभका जटाधारी रूपमें ही विचरना शिरोपर स्थित त्रिशूलोंको सींग कहा है। परन्तु उनकी सिद्ध होता है।
यह धारणा भारतकी किमीभी धार्मिक मान्यतासे सु__इससे यह प्रमाणित होता है कि मोहनजोदड़ो- संगत नहीं है-बिल्कुल निराधार है। भारतकी आध्यावाली जटाधारी मूर्तियां भी ऋषभ भगवानकी त्मिक मान्यताओंसे अनभिज्ञता ही उनकी इस कल्पना.
का एक मात्र कारण है । एक भारतीय विद्वानके लिये दोनों कलाओंमें त्रिशूलकी महत्ता
तो उसमें त्रिशूलकी पहिचान कर लेना बहुत ही दोनों कलाओं में त्रिशूलके चिहको विशेष सरल है । यहां कौन नहीं जानता कि त्रिशलका महत्व दिया गया है। सिन्धुदेशको मूर्तियोंमे यह चिन्ह त्रिगुप्ति अथवा त्रिदण्ड अर्थात् मन-वचनत्रिशूल ध्यानी पुरुषों के शिरोपर रक्खे हुए दिख- कायरूप त्रियोगोंको वशमें रखनेकी आध्यात्मिक लाए गए हैं और मथुराकी जैनमूर्तियोंमें यह भावनाका प्रतीक है। चूकि योगीजनके जीवनकी त्रिशूल ध्यानी पुरुष के चारों ओर रक्खे हुए हैं या विशेषता ही उनकी त्रिगुप्ति वा त्रिदण्ड है, इसलिये मूर्तिके नीचेकी ओर बने हुए हैं, जिनपर धर्मचक्र कलाकारों के लिये योगीश्वरोंकी मूर्तियोंको त्रिशूलके रक्खे हुए हैं। इनके लिये निम्न प्रमाण देखें:- चिह्नसहित बनाना स्वाभाविक ही है। शिवमर्तिके