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अनेकान्त
[ वर्ष १० प्रयुक्त होते आए हैं। परन्तु उनका यह रूप-ढंगनहीं समय उसने अपने विशेष पराक्रमसे बड़ी कीर्ति जो दण्डस्थित भाजनोंका है। और न कभी उन्हें पाई थी। दण्डोंपर चढ़ाकर उत्सवोंमें ले जानेका विधान है। ई० पू० शताब्दीकी शिशुनागवंशीय भज,
सिन्धुदेशमें उपर्युक्त टिकड़ोंसे, जैमा कि श्री जान. उदयी, नन्दिवर्धन और अजातशत्र प्रभृति राजाओंमार्शलने स्वयं माना है, यह बात तो सिद्ध है कि की प्रतिमाओंसे भी उपर्युक्त मतकी ही पुष्टि होती है । प्राचीन सिन्धुदेशमें ध्यानी ज्ञानी योगीश्वरोंकी प्रसिद्ध कवि भासके नाटकोंमें उल्लिखित मूर्तियों के उत्सव निकलते थे और आधुनिक जैन प्रमाणोंपरसे अथवा नाना घाटकी गफाकी शातउत्सवोंके समान उन मूर्तियों के आगे आगे धर्म- वाहन राजाओंकी प्रतिमाओंपरसे डा० जायसचक्रदण्डोंको ले जाया जाता था।
वालने तो यह मत स्थिर किया है कि देवमूर्तियोंभारतवर्षमे अर्हन्तोंकी ही नहीं, प्रत्युत भन्य- के समान भारतके राजवंशोंमें अपने पूर्वजोंकी वीरपुरुषोंकी भी मूर्तियां बनाने, मन्दिर निर्माण मूर्तियां बनाने, उनके मन्दिर निर्माण करने और करने, उनके उत्सव मनाने और जलूस निकालने उनके वार्षिक उत्सव मनाने की प्रथा प्राचीनकालसे की प्रथा प्राचीन काल से ही चली आ रही है। इसके चली आ रही है। लिये पर्याप्त उदाहरण विद्यमान हैं।
वैदिककालमें रथोत्सवमूर्तियोंके उत्सव मनानेकी प्रथा बहुत प्राचीन- ऋग्वेद ८-६९, ५-६ से भी विदित है कि ऋग्वे
मौर्य सम्राट सम्प्रतिके राज्यकालमें. दिक कालमें भी भारतीय आर्यजन अपने वीरजैसा कि साहित्यिक प्रमाणसे विदित है. उज्जैन
बलिष्ठ नेता शचिपति, वत्रपाणि, मघवन इन्द्रकी वासी जीवन्धरको मूर्तिका रथोत्सव निकाला करते
मतिको स्वर्णरथमे बिठाकर उसका उत्सव निकाला थे। यह जीवन्धर भगवान महावीरके समकालीन
करते थे।चूंकि इन्द्र वैदिक आर्यजनके लिये लोकहेमानन्ददेश के एक धीर-वीर राजा थे। इसने अपने
में सबसे उत्कृष्ट नेता था। उसने हजारों दासोंको मार राज्य के विद्रोही मन्त्रीका दमन करके पुनः अपने
कर', हजारोंको बन्दी बनाकर, सैंकडों दासनगरोंका राज्य की स्थापना की थी। यह अंतिम कालमे राज
विध्वंस करके, नच और शम्बर नामके पाट छोड़ महावीर स्वामीसे जिनदीक्षा ले अहन्त हो त्रशासकोंको मारकर सप्तसिन्धु देशको शत्र हीन गये थे। इनकी कीर्तिके वर्णनमें जैन साहित्यमें
किया था। उसको दास लोगोंके आधिपत्य से मुक्त कितने ही उत्तम काव्यग्रन्थ लिखे हुए हैं।
३ जनरल विहार पोड़ीसा रिसर्च सोसाइटी-दिसम्बर कलिङ्गाधिपति सम्राट् खारवेलके जमाने में भी १९२७, सम्राट खारवेलका हाथी गुफाका शिलालेख । कलिङ्गवासी अपने वीरशिरोमणि केतुभद्र की नीम ४ जयचन्द विद्यालंकार-भारतीय इतिहासकी रूपरेखा लकड़ीकी बनी हुई मूर्तिका उत्सव निकाला करते जिल्द पृ.१०१-१०४ । थे। यह केतुभद्र कलिङ्गदेशके राजवंशका मूल ५ A.C.Das-Rigvedic culture 1925-P.146 संस्थापक था और सम्राट खारवेलसे १३०० वर्ष ६ नाकिरिन्द्र स्वदुत्तरो रु ज्यायां अस्ति वृत्रहनं, नकिरेवा पूर्व अर्थात् ई० पू० १४६० में महाभारत युद्धके यथास्वम् ॥ ऋग्वेद ५-३०.१ 1(अ) आदिपुराण पर्व २२
७ ऋग्वेद ४-३०-२१ । (घा),तिलोयपएणत्ती ४-८॥
८. ऋग २-१३।। २ प्राचार्य हेमचन्द्र-परिशिष्ट पर्व १२५
६ऋग् २-११-६, २-१४-६ ।