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किरण ७८ ]
भद्रबाहु निमित्तशास्त्र
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उल्कावत् साधनं ज्ञ ेयं परिवेषेषु तन्वतः । लक्षणं सम्प्रवच्यामि विद्य तां तान्निबोधत ॥ ३६ ॥ अर्थ- परिवेषों का लक्षण और फल उल्काके समान सिद्ध करना चाहिए अर्थात् जनना चाहिए । अब विजलीके लक्षण कहते हैं सो उन्हें अच्छी तरह जानो ॥ ३६ ॥
इति मन्ये भद्रबाहुके निमित्ते परिवेषवभो नाम चतुर्थोऽध्यायः समाप्तः ।
पांचवां अध्याय
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अथातः संप्रवच्यामि विद्य तां नामविस्तरम् । प्रशस्ता चाप्रशस्ता च यथावदनुपूर्वतः ॥ १ ॥
अर्थ - अब विजली के नामादिका पूर्वाचार्यानुसार विस्तारसे कथन करते हैं। वह विजली दो तरह की है- प्रशस्त अर्थात् शुभ फल देनेवाली और अप्रशस्त अर्थात् अशुभ फल देनेवाली ||१|| सौदामिनी च पूर्वा च कुसुमोत्पलनिभा शुभा । निरभ्रा मिश्रकेशी च क्षिप्रगा चाशनिस्तथा ॥२॥ एतासां नामभिर्वर्षं ज्ञ ेयं कर्मनिरुक्तितः । भूयो व्यासेन वच्यामि प्रणिनां पुण्यपापजाम् ||३||
अर्थ — सौदामिनी और पूर्वा विजली यदि कमलके पुष्प समान हो तो वह शुभ अर्थात् शुभ फल देनेवाली है । वह विजली असे रहित - निरभ्रा, देवाङ्गनाके समान मिश्रकेशी, जल्दीसे गमन करनेवाली क्षिप्रगा और वके समान हो वह अशनि नामसे कही जाती है । वर्षा करनेवाली है अतः वर्ष भी कही जाती है । इस विजलीके नाम इसकी क्रियानिरुक्तिसे जानना, जैसे इसको तडित भी कहते हैं । अब विजली के विस्तारपूर्वक फल, लक्षण आदि कहे जाते हैं जो जीवों के पाप-पुण्यके निमित्तसे होते हैं ॥२३॥ स्निग्धस्निग्धेषु चाषु विद्युत् प्राच्या जलावहा । कृष्णा तु कृष्णामागेंस्था वातवर्षावहा भवेत् ४
अर्थ - चिकने बादलसे उत्पन्न विजली स्निग्धा कही जाती है। यदि वह पूर्व दिशाकी हो तो अवश्य बर्षा करती है । यदि काले बादलसे उत्पन्न हो तो वह विजली कृष्णा कही जाती है और वह वायुकी वषा करती है अर्थात वायु बहुत चलती है । यहां पर 'कृष्ण' शब्द अग्निवाचक है अतः अग्निकोणके मार्ग में स्थित विजली ‘कृष्णा' नामसे कही जातो है । उसका फल वायुवर्षा है । "बहिः शुष्मा कृष्णवर्मा शोचिउषर्बुधः" इति अमरकोषे पाठः ||४||
अथ रश्मिगताऽस्निग्धा हरिता हरितप्रभा । दक्षिणा दक्षिणा वाती कुर्यादुदकसंभवम् ||५||
अर्थ - जिस विजली की रश्मि चली गई है अर्थात् जो बिना रश्मिको विजली है वह स्निग्धा कही जाती है और हरित प्रभावाली बिजली हरिता कही जाती है, दक्षिण में गमन करनेवाली दक्षिणा कहलाती है। इनसे जल वरसता
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रश्भिवती मेदनी भाति त्रिद्य दपरदक्षिणे । हरिता भाति रोमांचं सोदकं पातयेद्बहुम् ॥६॥
अर्थ - पृथ्वीपर प्रकाश (चमक) करनेवाली - रश्मिवती, नैऋत्य कोण में गमन करनेवाली हरित और बहुत रोमवाली बिजली-बहुत जलको देनेवाली है ||६||
अपरेण तु या विद्यच्चरते चोत्तरामुखी । कृष्णाभ्रसंश्रिता स्निग्धा सापि कुर्याज्जलागमम् ॥७॥
अर्थ - पश्चिम दिशामें प्रकट होनेवाली, उत्तरमें मुख करके गमन करनेवाली, काले बादलोंसे निकलनेवाली और स्निग्धा (चिकनी) ये चारों विजलियां जलके आनेकी सूचना देती हैं ॥७॥