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किरण ११-१२ ।
ऐलक पद-कल्पना
शिष्ट रहती है तो उसासे अपनो सदरपूर्ति करता है तपविधान भागमअभ्यास,शक्तिसमान करै गरुपाम।।
और नहीं रहती तो स्वयं उस दिन उपवास करता यह छुल्लक श्रावककी रीत,दूजो ऐलक अधिक पनीत । है, जब कि वसुनन्दी आचार्यका ऐसा कोई विधान जाके एक कमर कौपीन, हाथ कमडल पोछी लीन ।। नहीं है। वसनन्दीने दोनों ही श्रावकोंके लिये 'धर्म- विधिसे खड़ा लेहि आहार, पानिपात्र आगमअनुसार लाभ' कहकर भिक्षा मांगने तथा बैठकर भोजन करें केशलुचन अतिधीर, शीतघाम तन सहै शरीर । करनेका विधान किया है और साथ ही उनके लिये पानपात्र आहार, करै जलांजलि जोर मनि । दिनमें प्रतिमायोग-धारण, वीर-चर्या, त्रिकाल योग खड़ो रहै तिहि बार, भक्तिरहित भोजन तजै ॥२०॥ (आतापनादिक) और सिद्धान्त तथा रहस्य ग्रन्थोंके एक हाथ पै ग्रास धर, एक हाथसे लेय । अध्ययनका निषेध किया है, जब कि कवि राजमल्ल• श्रावकके घर पायके, ऐलक अशन करेय ॥२०॥" जोने वैसा कोई प्रतिबन्ध नहीं रक्खा है । प्रथमके
-अधिकार वां लिए और दसरेके लिये लोंच आदिके विधानमें दोनों
पं० भूधरदासजीका यह सब कथन प्राय: लाटीही प्रायः ममान हैं।
सीहताके अनुकूल है। उन्होंने जो यह लिखा है कि (१६) कवि राजमल्लजी एक बहुत बड़ प्रतिभा सिद्धान्तमें इस प्रतिमा के 'क्षल्लक' और 'ऐलक' ये
। एवं सम्मान्य विद्वान थे और इसलिए उनक दो भेद किये है, उसका अभिप्राय भी लाटीसंहिताद्वारा किया गया ११वीं प्रतिमाके दोनों भदकिा से ही जान पड़ता है, लाटीमंहिताकारने स्वयं ही यह नामकरण क्रमशः प्रचारमें आया तथा रूढ हुआ प्रशस्तिमें अपनी इस संहिताको 'तावत्सिद्धान्तमेतजान पड़ता है। चुनॉचे पं० भूधरदास जीने अपने जयतु' इस वाक्यके द्वारा 'सिद्धान्त' नामसे उल्ल. पार्श्वपुराणमे, जा त्रि० सवत १७८६ की रचना है, खित किया है। 'सिद्धान्त' शब्द सामान्यतः शास्त्रखुले रूपसे इस अपनाया है। इस पुराणमें ११ वीं
मात्रका भी वाचक है, उस अर्थमें भी भूधरदासजीके प्रतिमाका जो वणेन दिया है वह इस प्रकार है- 'सिद्धान्त' शब्दको ले सकते है और उसमे भी
"अब एकादशमी सुनो, उत्तम प्रतिमा सोय। लाटीसंहिताका समावेश हो जाता है। इसके सिवाय
ताके भेद सिद्धान्तमे, छुल्लक ऐलक दोय ।।१६४। दूसरा काई प्राचीन सिद्धान्तशास्त्र या आगमग्रन्थ जो गुरुनिकट जाय ब्रत गहे, घर तज मठमंडपमे रहै। ऐसा नहीं है जिसमे ११ वी प्रतिमाके 'क्षल्लक' और एक वसन तन पीछी साथ,काटकोपीन कमंडल हाथ।। 'एलक' एसे दो भेद किये गये हो, यह बात हम भिक्षाभाजन राखै पास, चारों परब करै उपवास! ऊपर भले प्रकार देख चुके हैं। ले उदण्ड भोजन निर्दोष, लाभ अलाभ राग ना रोष।।
उपसंहार उचित काल उतरावै केश, डाढो मोछ न राखै लेश।
ऊपरके इन सब अनुसन्धानों परसे ११ वीं * यथानिर्दिष्टकाले स भोजनार्थ च पर्यटेत ।।
प्रतिमाका इतिहास बहुत कुछ सामने आ जाता है पात्र भिक्षां समादाय पंचागारादिहालिवत् ॥६॥ तम्राप्यन्यतमे गेहे दृष्टवा प्रासुकमम्बुकम् ।
और यह साफ मालूम होता है कि यह प्रतिमा मूलक्षणं चातिथिमागाय संप्रेच्याध्व च भोजयेत् ॥६॥
में एक ही भेदरूप थी, इसका नाम उद्दिष्टविरत' था, देवात् पात्रं समासाद्य दद्यादानं गृहस्थवत् ।
जो बादको 'उहिष्टाहारविरत' हुआ और उससे उसके तच्छेषं यत्स्वय भुक्ते नो चेत्कुर्यादपोषितम ॥७॥ मुख्य विषयकी सीमा उहिष्टभोजनके त्याग तक
' - सर्ग ७ वां सोमित हुई । श्रीचामुण्डरायने 'उद्दिष्टविनिवृत्त' नाम