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४२२ अनेकान्त
[वषे १० ठोक रास्तेपर लाना जब मुशकिल है तब यह तो न या अकड़को सबसे पहले दूर करना होगा। जब हम जाने किस अनादि कालसे भटकता चला आ रहा है। अच्छे डाक्टरकी बात ही नहीं सुनेंगे तो हम उसका यही कारण है कि हमारा स्वभाव अब ऐसा हो गया कहना ही कैस समझेगे फिर तो जो कुछ वह कहता है कि हम दुःखोंको और उनके कारणोंको ही अपने है उसे मानना और भी अधिक दूर की बात है । इस मे चिपकाए हुए-भूले हुए और उन्हें अपना एक लिए सबसे पहले यह आवश्यक है कि उचित शिक्षा अनिवार्य आवश्यक अंग समझते हुए वहन करते एव प्रचारके द्वारा यह गलत भावना संहारक लोगोंचलने जाते है और जो कोई उन्हें फेंकने या छोड़ के दिमागसे दूर को जाय कि जो कछ अब तक वह देनेको कहता है तो उलटे उमीपर बिगड़ते हैं, अपना समझता आया है वही ठीक है, बाकी सब उसको गालियां देते हैं, पागल कहते है और उसकी गलत । अथवा उसका एक डाक्टर जो कहता है या बातों को नहीं मानते अथवा सुनी अनसुनी कर देते कह गया है वही ठीक है और बाकी दुनियांके जितने हैं, इत्यादि । कहाँ तक कहा जाय इस तरह हमारा दुसरे डाक्टर कहते हैं या कह गए हैं वह सब गलतो मर्ज आज ला-दवासा (असाध्य-जैसा) हो रहा है। है, इत्यादि । जब तक यह अज्ञानपूणे कूढ़मग्जी
बात यह नहीं कि दवाइयां नहीं। होनेको तो लोगोंमें बनी रहेगो तब तक न वे किसीकी ठोक तरह. "संजीवनी बूटी" और "अमृत" भी है । असली से सुनेगे ओर न उनका रोग दूर होगा। जब लोग एक
और नकली तथा असली से समानता रखती हुई दूसरेकी सुनने लगेंगे और समझने को काशिश करके बहत सी दसरी भी दवाइया' है जो अपना कम-बेश समझने लगेगे तब सब कुछ अपने आप हो ठोक हो फायदा दिखलाती है। पर जब हम उधर ध्यान दे हो जायगा। तब तो। और बीचमें झूठे दवाफरोश, जो चारों अभी नो हालत ऐसी है कि एक धर्म मानने वाला नाम अपनो अग्नी दवाओंका इश्तहार करते- दसरे धर्मको एक दम गलत, झूठा और बहकी हुई विज्ञापन करते घूम रहे हैं, वे भी तो हमें असली बात समझना है। यह कभी नहीं सोचता या ख्याल "संजीवनी' तक पहुंचने नहीं देते-हम बीचमें ही करता कि सभव है उसके गुरुने हो कोई गलतो की उनकी भूठी लुभावनी बातोंमें पड़ कर भटक जाते है हो-जरा ममालोचनात्मक रूपसे उन बातोंकी जांच और नकली दवाओंको ही असली समझकर अपना तो को जाय कि जिन्हें वह अब तक मानता या ठोक लेते हैं। यदि उनसे थोड़ा बहुत आराम मिला तब तो समझता आया है उनमें कहां तक सत्यता है या पूछना ही क्या ? हम उसे ही अमृत समझने लगते
विवेचनात्मक तकपूर्ण रूपसे उनमे तथ्य कितना है। है और उस झूठे ढोंगी-विज्ञापन-बाजीके जारपर इत्यादि । ऐसा होनेसे ही सत्य तक कोई भी व्यक्ति अपना रोजगार फैलाए रखने वाले वैद्यको ही अपना कभी न कभी पहुंच सकता है। और यदि मत्य उसके रक्षक एवं गुरु या देवता मान लेते हैं।
पास ही हो तब तो वह उसे पूर्ण रूपसे जांच कर, अाखिर यह सब होता क्यों हैं और इन दुःखों- परीक्षा कर उसमे और भी दृढ़ता प्राप्त कर सकेगा, का कोई उपाय भी है या नहीं? यह सब कुछ होता है और यह और भी अच्छा होगा। पर संसारमें अज्ञानसे तथा नासमझीस। और इन दुःखोंको इतना मिथ्याभाव सत्य कह कर या सत्यके रूपदर करनेका उपाय भी है.पर उसके लिए सबसे पहने में प्रचलित हो गया है कि बड़े बड़े विद्वान भी नासमझी और अज्ञान तथा जिदको दूर करना सर्व- भ्रममें ही पड़े हैं, पड़ जाते हैं और निकलने की प्रथम काम है। हम अपनी जिद और अकड़में अपनी कोशिश करनेपर बजाय छुटकारा पानेके और पकड़को ही ठीक समझते हुए किसी दूसरेकी सुनने अधिकाधिक उलझते जाते हैं और घपले में पड़ जाते को तैयार नहीं। अतः इस गलत एवं भ्रमपूर्ण जिद हैं। फिर अपनी विद्वत्ताके झूठे मान और सांसारिक