Book Title: Anekant 1949 Book 10 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 460
________________ मूलमें मूल (ले०-बा० अनन्तप्रसाद जैन B. Sc. Eng.) संसारमें सभी सुख चाहते है-सुखी होना कि वह इधर देखे भी-इधर ध्यानको फेरे भी । चाहते हैं । पर दुखसे छुटकारा कैसे मिलेगा इस- वह तो एक Absolute बेबसीकी हालतमें चलता हो पर बहुत कम लोग ध्यान देते है। दुख क्या है, जाता है, रुकने का उसे अवकाश हो कहां ! वह है क्यों होता है तथा उसे दूर करने का क्या उपायहै ? साथमें 'पेट', 'बालबच्चे', 'कुटुम्ब परिवार' और इसपर लोग यदि ध्यान दें तो अधिक लाभ हो सबके ऊपर 'मांसारिक प्रतिबन्धन' । धनीको धनसे सकता है। दुख और सुख क्या है, उनके होने का फुर्सत नहीं और गरीबको गरीबोसे,दोनों ही बेसुध ! elementary प्रारंभिक प्रधान कारण क्या है तथा जब मर्ज बहुत काफी बढ़ जाता है और बदोश्तसे एकको दर करके दसरेको केसे प्राप्त किया जासकता बाहर हो जाता है या उसके कारण कार्यो में बाधा है ? यह सब एक प्रारम्भिक प्रश्न है । पर इधर पहुँचने लगती है तब व्यक्तिका ध्यान डाक्टर वैद्यध्यान ही कौन देता है ? एक दुख या बीमारीको की तरफ जाता है। पर अधिकतर डाक्टर और वैद्य बहत दिनोंसे भोगते भोगते कोई भी उससे होने वाले भी इस सांसारिक बीमारीके वैसे ही शिकार है। दखोंका या तकलीफों का आदी हो जाता है । उसके जिन्हें खदको भी ठीक सुब नहीं वे क्या दवा लिये उसमें कोई नयापन नहीं रह जाता। वह उस करेंगे। नतीजा यह होता है कि 'मर्ज बढ़ता गया तकलोफको महता हुआ एक आवश्यक भारसा ज्यों ज्यों दवा की फिर तो दवामें विश्वास ही उठवहन करता हु पा-भूना हुपासा संसारके और जाता है। वह ईश्वरको पुकारता है, पर वहां ईश्वर काम करता रहता है। और धीरे धीरे यह सब कुछ कहां। वह तो एक काल्पनिक वस्त है, जिसे विद्वानों स्वभावमें हो परिणत हो जाता है। फिर तो वह ने दखी मानवके संतोषके लिये रख दिया है, ताकि तकलीफ या दुग्ख उपके जीवनका ही एक (essenti- वह भला रहे । पर उसीपर हर तरहसे निर्भर होकर al part) आवश्यक अंग सा होजाता है जिसके यह विश्वास कर लेना कि अपने आपसे पैदा किये हटने में ही नयापन पैदा हो जाय-या नित्यप्रतिके सारे दुखों और जंजालोंको वह क्षणमात्रमें छू मन्त्रके नित्यनैमित्तिक (routine) कार्यों में खलल पैदा हो। जोरसे उड़ा देगा, नादानी नहीं तो और क्या है ? अन्यथा जो चलता रहता है चलता ही रहता है। यह नादानी ऐसो है कि सभी जन इसमें मुबतिला इसी तरह दुनिया चली जारही है-अपना मर्ज अपना हैं और इसोमें वाहवाही समझते हैं। फिर दवा कोढ़, अपनी बीमारी अपने आपपर लादे हुये, क्या-पाय क्या ? आखिर इनसे कैसे छुटकारा ढोतहए भुगतते हुए। हां, कभी कभी जब पीड़ा बढ़ मिले या मिल सकता है? क्या कभी कोई ठोक जाती है, नई खुजली पैदा होती है या कुछ नई तक- डाक्टर या वैद्य हुआ ही नहीं या होगा ही नहीं ? लीफ होने लगती है तब भान होता है कि जैसे कोई सो भी बात नहीं है । रोगको ठोक जानने पहचानने बोमारी है या बहुत दिनोंसे हो रही है और मनुष्य और ठोक निदान बतानेवाले डाक्टर भी हुये हैं और उसके प्रतिकारका कुछ उपाय करता है-कुछ हुआ होंगे भी, पर दुःखोंके बोझसे दबा हुमा मानव तो हुआ, नहीं तो रोज के 'नून तेल लकड़ी' के जब एक बार उन दुःखोंको स्वभावमें दाखिल चक्करमें धीरे धीरे वह नई खुजली भी पुरानीमें करलेता है तब वह बाकी सारी बातोंसे प्रायः परिणत हो जाती है और खुजलाता खुजलाना उसकी बेखबरसा ही हो जाता है। अन्धा बहरा गूगा हो टीसके मजे लेता और दुखसे 'सी सी' करता करता जाता है। चाहे कितना ही ढोल पीटा जाय, उसे चेत आगे बढ़ता चला जाता है । उसे फुरसत ही कहां है नहीं होता। एक बार बहक जानेपर किसीको फिर

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