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अनेकान्त
जैसा कि हपेकीत्तिसरिके उपलब्ध प्रन्थोंसे प्रतीत होता है कि वे १७वा शतीके उल्लेखनीय ग्रन्थकार थे । व्याकरण कोश, छन्द, वैद्यक, ज्योतिष आदि छन्दोविद्याका रचना काल मुख्तार सा० ने विषयोंके आप विद्वान् एवं अन्य टाकाकार थे । सं० १६४१ से पूर्वका अनुमानित किया है' । बोकानेरके जैन ज्ञान-भंडारोंका अवलोकन करते समय आपके अनेक ग्रन्थ अवलोकनमें आये तभी से आपके सम्बन्धमें एक लेख प्रकाशित करनेकी इच्छा हुई थी जिसे छन्दोविद्याके उक्त पद्यने और भी बलवती किया । पर अन्य कार्यों में लगे रहने से अभी तक उसकी पूर्ति नहीं हो सकी, नागपुरीय तपागच्छ ( जो पाछेसे पार्श्वनाथगच्छ के नामसे विशेष प्रसिद्धि में आया है ) के श्री पूज्यजीकी गद्दा बीकानेर मे है एवं नागौर में भी इस गच्छका उपाश्रय है अतः इन दानों स्थानोंके ज्ञान भंडार अव लोकन करने पर संभव है कुछ ज्ञातव्य मिल जाय, इस आशान भी अपने विचारको कायरूप में परिपत करनेमें विलम्ब कर दिया पर बोकानेर के श्री पज्यजी स्वर्गवासी हो गये और उनका भंडार अभी श्रावकों की देख रेख में है जिन्हें इस विषय में तनिक भी रस नहीं, अतः अनेकों बार कहने परभी उसके
श्रथात्-नागपुरीय तपागच्छीय 'चन्द्रकीर्तिसूरिके पट्टधर मान (कीर्त्ति ) * मूरिके पट्टपर अभी हम कीर्तिवराज रहे हैं।
५- कई लोग नागपुरीय तपागच्छको सुप्रसिद्ध तपागच्छको एक शाखा मानते हैं। पर वास्तव में वह सही नहीं प्रतीत होता | नागपुरीय तपागच्छकी प्रसिद्धि चन्द्रकीर्ति श्रादिके उल्लेखानुसार ११७४ में हुई है जबकि तपागच्छक सं० १२८५ में जगचंद सूरिद्वारा | areer नागपुरीय तपागच्छीय श्राचार्यों की सीधी परम्परामे भी नही धाते ।
२. प्रशस्तियोंसे इनका श्राचार्य पदका काल सं १६२६ से १६४० तकका प्रतीत होता है । इनके शिष्य श्रमरकीर्त्तितसरि संबोध सतरी वृत्ति बीकानेरके वृहत् ज्ञान भडारमें उपलब्ध दें। श्रमरकीर्त्ति सूरिका नाम सं० १६४४ के वंराटके प्रतिष्ठा लेखमें हर्ष कीर्त्तिसूरि के साथ आता है | संबोधसतरीकी वृत्ति इन्होंन हर्षकार्त्तिके राज्य में बनाने का उल्लेख किया है अतः ये उनकी श्राज्ञानुवर्त्ती श्रेव सं० १६४४ के पूर्व आचार्य पद प्राप्त कर चुके सिद्ध होता है । प्रस्तुत सबोधसतरीके रचयिताका नाम जिनरत्नकाश में रत्नशेखर लिखा हैं जो सही नहीं प्रतीत होता ।
२ कलकत्तेके जैन श्वेताम्बर मन्दिर में एक धात प्रतिमा पर सं १६४२ का लेख उत्कीर्णित है जिसमें मानकीर्तिद्वारा उक्त प्रतिमाकं प्रतिष्ठा होने का व उनके साथ २ हषकीतिका उल्लेख है इससे ही मं० १६४२ तक
कीर्तिपुरको प्राचार्य पद नहीं मिला यह निश्चित हैं। छन्दोविद्या में हर्षकार्तिजोको सृरि लिखा होनेसे सं० १६४२ के पश्चात् ही उसकी रचना होनो चाहिये । हघकीर्तिसुरके लिखे और रथे ग्रन्थोंसे सं० १६४४ में उन्हे सूरि पद प्राप्त हो गया था, सिद्ध हैं । श्रत: छन्दो विद्याका रचना काल स० १६४२ से १६४४ के बीचका निश्चित होता है। सं० १६४४ में राजा भारमल्ल के पुत्र
इन्द्रराजकारित वैराटके श्वे० जैनमन्दिरकी प्रतिष्ठा हुई थी । छन्दाविद्यामें उसका उल्लेख न होने से भी उसकी रचना सं० १६४४ से पूर्व निश्चित होती है । छन्दोविद्या का रचना काल सं० १६४२ मान लेने पर भी मुख्तार मा० को राजमल्लके नागौरमे वैराट आकर लाटा सहिताको रचना करने की मान्यता बदल देनी पड़ती है ।
४ - सोलहवीं शताब्दीक उत्तरार्द्ध एव सत्रहवींक पूर्वार्द्ध में दमी में पाश्चचन्द्रसूरि नामक विद्वान हो गये है जिनका रचित विशाल साहित्य उपलब्ध है । थापका जीवनचरित्र एवं रचनाओं के संग्रह ग्रन्थ भी प्रकाशित हो चुके हैं। इनके नामसे ही नागपुरीय तपागच्छ नाम गौण होकर पार्श्वचन्द्र गच्छके नामसे इस परम्पराकी प्रसिद्धि हो गई है ।