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अनेकान्त
[वर्ष १०
सूरि(गुरुभ्राता हेमरत्नसूरि ) प्रोसवालवंशीय गज- देकर सम्मानित किया था । इनके शिष्वरत्नशेखर रत्नसूरि चन्द्रकीर्तिसूरि-हपकीत्ति ।
सूरिको पेरोजशाहने वस्त्रपरिधापन किया था । उपा. हर्षकीतिने अपनी धातुपाठवृत्तिकी प्रशस्तिमें ध्याय हंसकीर्तिको दिल्ली में सिकदर वादशाहने और जयशेखरसू रसे अपने गुरु चन्द्रकीर्तिसूरि तकका आनन्दरामका हुमायूने राय पदबी देकर एवं चन्द्रजो ऐतिहासिक वृत्तान्त दिया है, महत्वपूर्ण होनेसे कीत्तिको सलेमशाहिने सन्मानित किया था इसी उस प्रशस्तिके पद्य यहां उद्धृत किये जा रहे हैं- गच्छके उपाध्याय पद्मसुन्दरने सम्राट अकबरको गच्छे यत्रप विचित्राऽवनितले हम्मीरदेवाचितः सभामें किसी महापण्डिनको जीताथा इससे सम्राट ने सूरिः श्रीजयशेखरः सुचिरतः श्रीशेखरः सद्गुणः। वस्त्र, ग्राम एव सुखासनादद्वा
वस्त्र, ग्राम एव सुखासनादिद्वारा उनको सन्मान
दिया था। जोधपुरके प्रतापी नरेश मालदेव भी इन रूणायां पुरि सीहडस्य वचनादल्लावदो भूभुजः।
को आदर देता था। इसी गच्छके चन्द्रकीर्तिसूरिके सद्वासः फुरमानदानमहित: श्री वनसेनोगुरुः ॥१॥
शिष्य हर्षकीर्तिने धातुपाठकी वृत्तिसहित रचनाकी। सूरिः श्रोप्रभुरत्नशेखरगुरूविद्यानिधियों मुदा
प्रस्तुत ग्रन्थ टुकके खडेलवाल ज्ञातीय वासक्षोमैः किल पर्यधाप यदरं पराजमाहिः प्रभुः । कलीवाल गोत्रके (सांवला पाश्वनाथ प्रसादके श्रीमत्साहिसिकंदरस्य पुरतो जातः प्रतापाधिकोः निर्माता ) नेदामके पुत्र शाह जइताक पुत्र गेहाके ढिल्यां नागपुरीयपाठकवरः श्रोहंसकीयाहयः॥२॥ पुत्र हेमसिंहकी अभ्यथेनासे रचा गया था जैसा
आनन्दं जनयन् सदामुनिजने स्वानदरामःस्मभूत् कि प्रशस्तिके अन्तिम श्लोक व उसकी वृत्तिसे ज्ञात प्रादाद्यस्य चिराय रायपदवीं श्रीमान हमाय'नृपः। होता है। ऐतिहासिक होनेसे उसे भी यहां उद्धृत श्रीमत्साहिसलेममिपतिना संमानितः सादर। कर दिया जाता है। सूरिः सन्निकलिंदिका कलितची: चंद्रकीत्तिः प्रभुः।३।
खडेलवालसद्वश हेममिहाभिधः सुधीः । साहे संसदि पद्मसुन्दरणिजित्वा महापंडितम् ।।
___तस्याभ्यर्थनया ह्यष, निमिता नंद ताच्चिर ॥१॥ क्षोमग्रामसुखासनाद्यकवरश्रीसाहितो लग्यवान् ।।
टीका-नवर खंडेलवालज्ञातै वाकलीवालगोत्रेण हिन्दुप्राधिपमालदेवनृपतेः मान्यो वदान्योधिकम् टु कनगरे सांवलापाश्वनाथप्रसादकारकनेदास श्रीमज्जोधपुरे सुरेसिप्तबचः पव्वापद्मा ह्वयः पाठकः४ तद्गच्छा मलमंडनं सुविहितः श्रीचंद्र कीर्तिप्रभोः।
१-उ० पद्मसन्दरके सम्बन्धमें अनेकान्त वर्ष ४ अङ्क
८, ववर्ष १० अङ्क १ में प्रकाशित मेरा लेख देखना चाहिये शिष्य. सूरिवरः स्फुरदय तिभरः श्रीहषकीर्ति:सुधीः तेनेय रचितात्म निर्माणशु श्री धातु पाठस्य सद् ।
२-उपयुक्त पद्मसुन्दरने दि० रायमल्लकी अभ्यर्थना
से रायमल्लाभ्युद काव्यका निर्माण किया था और हर्षकीर्तिवृत्तिःसूत्ति मियचु थावदितः श्री पुष्कदन्तावसौ।।५।।
ने हेमसिंहकी अभ्यर्थनासे धातुपाठकी रचनाकी । इधर अर्थात-नागपुरीय तपागच्छके जयशेखरसूरि
राजमलने श्वे. राजाभारभल्लके लिये छंदो विद्या बनाई को हम्मीरदेव नपति आदर देता था। अल्लावदीन
इससे उस समय दि० श्वे. श्रावक व विद्वान लोग कितने ने वनसेनसूरिको रुणमें सीहडके बचनसे फरमान
उदार विचारके थे यह प्रतीत होता है। १. सारस्वतदीपिका के अतिरिक्त श्रापके रचित टोंकके कासलीवाल हेमसिंह व उनके पूर्वजके निर्माप्राकृत छन्दकोश वृत्ति व सिद्धचक्र यंत्रोद्धार टिप्पन प्राप्त थित सांवला पार्श्वनाथ जिनालयके सम्बन्धमें विशेष है बीकानेरके दान सागर भंडारमें आपके रचित संग्रहणो ज्ञातम्ब अपेक्षित है। प्राशा है टोकके कोई सज्जन अनुटवाकी प्रति भी उपलब्ध है
संधान कर इस पर प्रकाश गलनेकी कृपा करेंगे।