Book Title: Anekant 1949 Book 10 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 441
________________ ४०२ अनेकान्त [ वर्ष १० देकर और उद्दिष्ट पिंडके साथ साथ उद्दिष्ट उपधि- जैसे एक नामसे ही उपलक्षित होतेरहे, जैसाकि प्रायशयन-वसनादिको भी शामिल करके उसके विषयको श्चितत्तसमुच्चय चूलिकामे श्रीगुरुदासाचार्यके दिये हुए फिरसे बढ़ाया और पं० आशाधरजी आदिने दबे 'क्षल्लक'क लक्षणसे प्रकट है। और यह 'शल्लक' शब्दों में उसका समर्थन भी किया, परन्तु वह बात नामकरण निग्रन्थ साधुओंके नीचे दर्जे का साधु चली नहीं और अन्तको उद्दिष्टभोजन के त्यागका हो होने के कारण किया गया जान पड़ता है, जिसे कन्दविधान स्थिर रहा-चाहे प्रतिमाका नाम 'उद्दिष्टविरत' कुन्दाचार्य ने सुत्तपाहुडमे मुनियों के बाद द्वितीयलिङ्ग जैसा कुछ भी क्यों न हो। धारी बतलाया है। जब ये वैकल्पिक आचरण अधिक रूढ हो गये और उनके अनुष्ठाताओं में बड़ेइस प्रतिमाधारीके लिये एक वस्त्रका नियम था मोदी छोटेकी भावनाएं घर करने लगी तब वसुनन्दी और वह प्रायः ऐसा खण्डवस्त्र होता था जिससे पूरा आचार्यने इस प्रतिमाके दो भेद कर दिये और उनमें शरीर न ढक सके-सिर आदि ढके गये तो पैर इनके माचारको बॉट दिया, परन्तु दोनोंक लिये स्खल गये और पैर आदि ढके गये तो सिर खुल कोई अलग अलग नाम निर्दिष्ट नहीं किया। पं. गया। किसी किसी बलवान् भात्माने उस वस्त्रका प्राशाधरजोने प्रथमभेदके दो भेद किये, द्वितीय संकोच किया और उसे अपने लिये लंगोटी तक के लिये 'आर्य' नाम दिया, पं. मेधावीन उनका सीमित किया और कोई २ वस्त्रके अतिरिक्त लंगोटी अनुसरण किया और ब्रह्मनेमिदत्तन प्रथम भी धारण करने लगे। इस तरह वस्त्रके विषयमें भेदवके लिये 'सधी'और द्वियक लिये 'यती' नाम विकल्प उत्पन्न हुए । केश कटानेके विषयमें भी दिया; परन्तु ये सब नाम कछ चले अथवा प्रचलित बिकल्पोंने इसी प्रकार जन्म लिया-कोई केंचीसे नहीं हो पाये । इस प्रतिमाधारोक लिये चल्लक बटाने लगे तो कोई उस्तरेसे और जिन्हें जल्दी हो नामका अखण्ड प्रयोग १६ वी शताब्दी तक बराबर मुनिमागे पर चलना इष्ट हुश्रा अथवा दूसरी कोई चलता ही रहा । ५७ वी शताब्दीमे विद्वद्वर पं० अन्य परिस्थिति सनके सामने आई तो वे केशका राजमल्लजीने प्रथम भेदके लिये 'क्षुल्लक' और द्वितीय लौंच करन लगे अर्थात् उन्हें अपने हाथसे उखाड़कर के लिये ऐलक' नाम दिया और तबसे ये नाम इन फेंकने लगे। पात्र-विषयक विकल्पका भी ऐसा ही दा भेदोंके लिये रूढ चले आते है। इससे स्पष्ट है हाल है । इस प्रतिमाका धारी गृहत्यागी होता था कि 'ऐलक' पदकी यह कल्पना कितनी आधुनिक और इसलिये उसका भोजन भिक्षापर निर्भर था। तथा अवोचोन है । प्रचोन दृष्ठिमे इस पदका धारक भिक्षा भ्रामरीवृत्ति-द्वारा भनेक घरोंसे ली जाती थी, क्षल्लक साधस अधिक और कछ नहीं है--श्रोकन्दजिससे किसी भी दाताको कष्ट न हो और न व्यथके कुन्दाचार्य उस द्वितीय लिङ्गधारीके अतिरिक्त कोई भाडम्बरको अवसर मिले, अतः भिक्षापात्रका तीसरा लिङ्गवारी नहीं बतलाते है। रखना आवश्यक था, उसे लेकर ही भिक्षाके लिये जुगलकिशार मुख्तार जाना होता था। उस पात्रकी धातु आदिके विषयमें विकल्प उत्पन्न हुए। और कुछने भिक्षापात्रकी झझट- यह लेख उस लेखका कुछ संशोधित तथा परिवर्धित को छोड़कर मुनियोंकी तरह करपात्रमे ही आहार रूप है जो भाजते कोई २६ वर्ष पहले ता०१३ सितम्बर करना प्रारम्भ कर दिया। इन सब वैकल्पिक आच. सन १६ का लिखा गया था और उसी समय लेखकरणोंके होते हुए भी प्रतिमामें कोई भेद नहीं किया द्वारा सम्पादित 'जैनहितंकी मासिक भाग १५के सयुक्ता गया। प्रतिमाके धारक सभो उस्कृष्टश्रावक 'तुल्लक' नं. ९-१० में प्रकाशित हुआ था।

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