Book Title: Anekant 1949 Book 10 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 432
________________ किरण ११-१२] ऐलक-पद-करूपना ३६३ उपधिशयनासनादिके भी त्यागका संग्रह किया है, तकमे प्रयुक्त किया है। यथाजिसे वसुनन्दीजी छोड़ गये थे, और स्वोपज्ञ टीकामें ..."ममार्य देयाः शिवतातिमुच्चै।" उसका स्पष्टीकरण भो कर दिया है। "स्त्वमार्यनक्त दिवमप्रमत्तवान्""" (ख) प्रथमोत्कृष् श्रावकके लिये कोपोन और ""त्वया स्वतृष्णासरिदार्य शोषिता।" उत्तरीय वस्त्र ऐसे दो पटोका विधान किया है और -स्वयम्भूस्तोत्र उनका रंग सफेद दिया है, जब कि वसुनन्दि आचार्य अमि, मसि और कृषि आदि कर्म करनेवालों को ने उसके लिए एक वस्त्रका ही विधान किया था और भी 'आर्य' कहते है। ऐसी हालतमें इस संज्ञासे उसका कोई रंग नियत नहीं किया था। यद्यपि यहां कोई खास विशेषत्व मालूम नहीं होता (ग) वा मौनेन दर्शयित्वांगं' शब्दोंक द्वारा और न यह संज्ञा इस प्रतिमाधारी पुरुषके लिए कुछ विकल्पसे मौनपूर्वक स्वशरीर दिखलाकर भिक्षा रूढ ही पाई जाती है, तो भी स्त्रीलिंगमें 'प्रायो लेनेका भी विधान किया है, और इस तरह पर (या पार्यिका) शब्द एक साध-वेषधारिणी स्त्रीके श्रीकदकुदाचार्य और स्वामिकार्तिकेयके कथनाका लिए रूढ जरूर है। संभव है कि उसी परसे और मच्चिय किया है, जिसे वसुनन्दी यथेष्ट रूपमें नहीं उसी दृष्टिको लेकर यहां पुल्लिंगमें इस संज्ञाका प्रयोग कर पाये थे। किया गया हो। परन्तु कुछभी हो, इन सब विकल्पों(घ) प्रथमोत्कृष्ट श्रावकके दो भेद किये हैं- को छोड़कर यह तो स्पष्ट ही है कि पं० भाशाधर भिनानियम और २ अनेकभिक्षानियम । एक जीने इस द्वितीयोत्कृष्ट श्रावकको 'आर्य' नामसे पर संबंधिनी भिक्षाका जिसके नियम है वह एक नामांकित किया है, 'ऐलक' नामसे नहीं। अस्त: ५० भिक्षानियम नामका श्रावक है । उसके लिए मुनिमार्ग- श्राशाधरजीके वे सब पद्य, जो इस विषय में वसुनन्दी के अनुसार दातारके घरमें जाकर भोजन करने, परम जाकर माजन करना आचार्यको ऊपर उद्धत की हुई गाथाओंके साथ आचार्यकी ऊपर उदधत भोजन न मिलने पर नियमसे उपवास करने और समानता या असमानता रखते हैं, इस प्रकार हैगुरुशुश्रषा तथा तपश्चरणादिकको करते हुए हमेशा तत्तव्रतास्त्रनिर्भिन्नश्वसनमोहमहाभटः। मुनिवनमें रहने का विधान किया है। और अनेक __ उद्दिष्टं पिंडमप्युज्झदुत्कृष्टः श्रावकोऽन्तिमः। ॥३७ भिक्षानियम नामके श्रावकके वास्ते अनेक घरोंसे उस स द्वधा प्रथमः श्मश्रमूर्ध्वजानपनाययेत् ।। वक्त तक भिक्षाकी याचना करते रहनेका विधान सितकौपीनसंध्यानः कतैयाँ वा चरेण वा ॥३८॥ किया है जब तक कि स्वोदर-पूर्तिके योग्य भिक्षा स्थानादिषु प्रतिलिखेत् मृदूपकरणेन सः । एकत्र न हो जाय। कुर्यादेव चतुष्पामुपवास चतुर्विधम् ॥४६॥ (ङ) द्वितीयोत्कृष्ट श्रावकको संज्ञा 'आय'दी स्वयं समुपविष्टोऽद्यात्पाणिपात्रेऽथ भाजने । है, जब कि वसुनन्दी प्राचार्य ने इस श्रावकके लिए स श्रावकगृहगत्वा पात्रपाणिस्तदाङ्गणे॥४॥ किसी खास संज्ञाका निर्देश नहीं किया और न स्थित्वा भिक्षां धर्मलाभ भरिणत्वा प्रार्थयेत वा। दसरे ही किसी पवोचायने. जिनका कथन ऊपर मौनेन दर्शयित्वांगं लामालाभे समोऽचिरात्।।४१ दिया गया है,५१ वी प्रतिमाधानी श्रावकके लिए निर्गत्यान्यद्गृहं गच्छेद्भिक्षोध क्तस्तु केनचित् । इस संज्ञाका कोई विधान किया है, बल्कि पज्य भोजनायाथितोऽद्यात्तद्भकवा यद्भिक्षितं मनाक ॥४२ प्रतिष्ठितादि अर्थकी वाचक यह सामान्य संज्ञा अनेक प्राथेयेतान्यथा भिक्षां यावरवादरपूरणीम्।। प्राचार्यों द्वारा अनेक प्रकारके व्यक्तियोंके लिए लभेत प्रासु यत्राम्भस्तत्र संशोध्य तां चरेत् ॥४३॥ व्यवहत हुई पाई जाती है। श्रीसमंतभद्राचार्य ने तो x इसे जिनेंद्र भगवान्को-तीर्थकरोंको सम्बोधन करने यस्त्वेकभिक्षानियमो गत्वाऽद्याइनुमुन्यसौ। निगम

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