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भुक्त्यभावे पुनः कुर्यादुपवासमवश्यकम् ||४६ | सेन्मुनिवने नित्यं शुश्रूषते गुरू ंश्चरेत् । तपो द्विद्यापि दशधा वैयावृत्यं विशेषतः ॥ ४७|| तद्वद्वितीय.किःत्वायसंज्ञो लुञ्चत्यसौ कच'न् । कौपोनमात्र युग्धत्ते यतिवत्प्रतिलेखनम् ॥ ४८ ॥ स्वपाणिपात्र एवत्ति संशोध्यान्येन योजितम् । इच्छाकारं समाचारं मिथः सर्वे तु कुर्वते ||४६ ॥ श्रावको वीरचर्यादः प्रतिमातापनादिषु । स्यान्नाधिकारी सिद्धान्तरहस्याध्यययनऽपि च ॥५०॥
अनेकान्त
-सागा० ध० अ० ७
(१०) धर्मसंग्रहश्रावकाचार में पं० मेघावीन, जो कि विक्रमकी ५६ वीं शताब्दी के विद्वान् हैं, इस प्रतिमाका स्वरूप पं० आशावरजीके ही कथनानुसार द्विभेद अथवा त्रिभेदरूप दिया है। इतना ही नहीं बल्कि उनके शब्दका प्रायः अनुमरण भी किया हैं। सिर्फ दो एक जगह कुछ विशेष पाया जाता है; जैसा कि (२) उद्दिष्टपिडके साथमें आपने 'अति' शब्द को छोड़ दिया है, जिससे ऐसा मालूम होता हे कि शायद आपको उद्दिष्ट उपधि-शयनासनादिकका त्याग इष्ट नहीं था; (२) विकल्पसे मौनपूर्वक भिक्षा के कथनको न दे कर उसके स्थानमें वही वसुनन्दी जैसा कथन रक्खा है, और (३) द्वितीयो - त्कृष्ट श्रावकके लिए रक्त कौपीनका विधान किया हं । इस ग्रन्थके सिर्फ दो चार पद्य नमृनेके तौर पर नीचे दिये जाते हैं -
दशधा धर्मास्त्रसंभिन्न श्वसन्मोह मृगाधिपः । पिंडमु'द्दष्टमुज्झम्स्यादुत्कृष्टः श्रावको ऽन्तिमः ॥ ५६ ॥ ॥ उत्कृष्टोऽसौ द्विधा ज्ञेयः प्रथमो द्वितीयस्तथा । प्रथमस्य स्वरूपं तु वच्म्यहं त्वं निशामय || ६०|| श्वकपटकौपीनो वस्त्रादिप्रतिलेखनः । कर्तर्या वा तुरेणाऽसौ कारयेत्केश मुण्डनम् | ६१ ॥ लाभालाभे ततस्तुल्यो निर्गत्यैत्यान्य मंदिर म् । पात्रं प्रदर्श्य मौनेन तिष्ठेत्तत्र क्षणं स्थिरः ॥ ६५|| प्रार्थयेर्याद दाता तं स्वामिन्नत्रैव भुक्वहि ।
[ वर्ष १०
तदा निजाशनं भुक्त्वा पश्चात्तस्य मनेद्रुचौ । ६६॥ यस्त्वेकभिक्षो भुजीत गत्वाऽसावनुमुन्यतः । तदलाभे विदध्यात्स उपवासमवश्यकम् ॥ ७० ॥ तथा द्वितीयः किन्त्वार्य नामोत्पाटयेत्कचान् । रक्तकौपीनसंग्राही धत्ते पिच्छं तपस्विवत् । ७२ ॥ - धर्मसं० श्रा० अ० ८ (११) भाव संग्रहमे पं० वानदेव भी, जिनका अस्तित्व समय विक्रमकी १६ वीं शताब्दी पाया जाता है, इस प्रतिमाघारीके दो भेद करते है - एक 'ग्रन्थसंयुक्त' और दूसरा 'कौपीनधारक' । पहले के लिये आपने एक वस्त्रका विधान किया है, परन्तु श्राशाधरादिककी तरह साथम कौपीनका नहीं । वह क्षौर बराता है, गुरुके निकट पढ़ता है और पांच घरोंके भिक्षा- भोजनको ग्रहण करता है । दूसरा केशलौच करता है, कौपीन, शौचोपकरण. कमंडलु) और पिच्छीको छोड़कर उसके पास दूसरा कोई परिग्रह नहीं होता, वह मुनियोंके अनुमार्गसे चयो की जाता है और बैठकर कर पात्र में आहार करता है । शेष त्रिकालयोगादिकके निषेधका कथन उसके लिए साधारण है और उसमें वीरचर्याके न होनेका कारण आपने खडवस्त्र (कौपीन) का परिग्रह बतलाया है । यथा
नोटि..... (सेवते) भिक्षामुद्दिविरतो गृही । द्वं धैको ग्रंथसंयुक्तस्त्वन्यः कौपीनधारकः || २४५|| आद्यो विदधते क्षौरं प्रावृणोत्येक त्रास मं । पंचभिक्षाशनं भुङ्क्ते पठते गुरुसन्निधौ ॥५४६|| अन्यः कौपीनसंयुक्तः कुरुते कंशलुञ्चनं । शौचोपकरणं पिच्छं मुक्त्व न्यमथवर्जितः ||५४७|| मुनीनामनुमार्गेण चर्या सुप्रगच्छति । उपविश्य चरेद् भिक्षां करपात्रेऽङ्गसवृतः ||५४८|| नास्ति त्रिकालयोगोऽस्य प्रतिमाचा कसम्मुखा । रहस्यग्रन्थनिद्धान्तश्रवणे नाधिकारिता ॥ ५४६ ॥ arrant न तस्यास्ति वस्त्रखण्डपरिग्रहात् । एवमेकादशो गेही सोत्कृष्टः प्रभवत्यसौ ||५५०||
यहाँ पंचभिक्षाशनके नियमका जो खास विधान * इलखित ग्रन्थ देहलीके नये मन्दिरमें मौजूद है।